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भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ गर्भ विचार
२८ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौबीस वर्ष तक कायमवस्थ, कायमवस्थ रूप में रहता हैं।
२९ प्रश्न-हे भगवन् ! मानुषी और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चनी सम्बन्धी योनिगत बीज (वीर्य) कितने समय तक योनिभूत रूप में रहता है ?
२९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक 'योनिभूत' रूप में रहता है।
विवेचन-पहले परिचारणा का वर्णन किया गया है । परिचारणा से गर्भाधान होता है, इसलिए अब गर्भ के सम्बन्ध में कहा जाता है । कालान्तर में पानी बरसने के कारण रूप पुद्गल परिणाम को 'उदक गर्भ' कहते हैं। उनकी स्थिति (अवस्थाम) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक होती है अर्थात् वह जघन्य एक समय बाद बरस जाता है और उत्कृष्ट छह महीने बाद बरसता है-मार्गशीर्ष और पौष से लेकर वैशाख तक के महीनों में दिखाई देने वाला सन्ध्या का रंग और मेघ का उत्पाद आदि 'उदक-गर्भ' के निशान (चिन्ह) हैं । जैसा कि कहा
पौषे समार्गशीर्षे, सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः ।
नात्यर्थ मार्गशिरे शीतं पौषेऽतिहिमपातः॥ अर्थ-मार्गशीर्ष (अगहन ) और पौष महीने में सन्ध्या का रंग हो और कुण्डाला युक्त मेघ हो, और इस महीने में ठण्ड न पड़े और पौष महीने में बर्फ बहुत पड़े, ये सब उदकगर्भ के निशान हैं।
कायभवस्थ-उसी माता के उदर में रहना 'काय' कहा गया है। उसमें उत्पन्न होना 'काय भव' कहलाता है। उसी में जो फिर जन्म ले उसको 'काय भवस्थ' कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि-उसी माता के पेट में रह कर फिर से उसी में उत्पन्न होना 'कायभवस्थ' कहलाता है । जैसे कि-कोई जीव, माता के उदर में गर्भ रूप से आया । फिर वह जीव, उसी माता के उदर में बारह वर्ष तक रह कर वहीं मृत्यु को प्राप्त हो जाय, फिर उसी माता के शरीर में नये शुक्रशोणित से उत्पन्न होकर फिर बारह वर्ष तक रहे । इस तरह एक जीव उत्कृष्ट चौबीस वर्ष तक 'काय भवस्थ' रूप में रह सकता है।
गर्भज जीव शुक्र शोणित से ही पैदा होते है। इसलिए 'काय भवस्थ' जीव भी शुक्र शोणित से ही पैदा होता है । शुक्र शोणित से पैदा होने वाला अपने पूर्व मृत शरीर में
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