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भगवती सुत्र - श. २ उ. ४ इन्द्रियां
पोहत्तं (विस्तार - लम्बाई) श्रोतेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, और घ्राणेन्द्रिय की लम्बाई अंगुल के असंख्यातवें भाग है । रसनेन्द्रिय की अपने अंगुल से पृथक्त्व ( दो से नव) अंगुल तक और स्पर्शनेन्द्रिय की लम्बाई अपने अपने शरीर परिमाण है। पांचों इन्द्रियाँ अनन्त प्रदेशों से बनी हुई हैं और असंख्यात प्रदेशावगाढ हैं । चक्षुइन्द्रिय की अवगाहना सब से अल्प है । उससे संख्यातगुणी श्रोत्रेन्द्रिय की अवगाहना है । उससे संख्यातगुणी अवगाहना घ्राणेन्द्रिय की है । उससे असंख्यातगुणी अवगाहना रसनेन्द्रिय की है उससे संख्यातगुणी अवगाहना स्पर्शनेन्द्रिय की हैं । चक्षुइन्द्रिय को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियां स्पृष्ट और प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती हैं अर्थात् चक्षुइन्द्रिय अप्राप्यकारी है और शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। विषय - चारों इन्द्रियों का विषय जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग है और चक्षुइन्द्रिय का विषय जघन्य अंगुल से संख्यातवें भाग हैं । उत्कृष्ट विषय ग्रहण इस प्रकार हैंश्रोत्रेन्द्रिय का बारह योजन, चक्षुइन्द्रिय का साधिक एक लाख योजन, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय नव नव योजन है । अर्थात् इतनी दूरी पर रहे हुए अपने अपने विषय को ये इन्द्रियाँ ग्रहण कर लेती हैं ।
इस विषय में प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें इन्द्रिय पद में बहुत विस्तार के साथ: वर्णन किया गया है । वह सब वहाँ से जानलेना चाहिए, यावत् अलोक तक का वर्णन जान लेना चाहिए ।
॥ दूसरे शतक का चौथा उद्देशक समाप्त ॥
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