Book Title: Bhagvati Sutra Part 01
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 460
________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का जागरण कडाई-कृतादि अर्थात् सेवा करने में समर्थ, कृतयोगी, मेहघणसन्निगासं गहरे = घने मेघ जैसी काली, देवसन्निवातं - देवों के आने के स्थान जैमी, संलेहणा - संलेखना = कषायादि नष्ट करना, सणासियस्स - कर्मों को क्षय करने के लिए क्षीण किया । भावार्थ - उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर में पधारे, समवसरण की रचना हुई यावत् जनता भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर वापिस चली गई । इसके पश्चात् किसी एक दिन रात्रि के पिछले पहर में धर्म जागरणा जागते हुए स्कन्दक अनगार के मन में ऐसा विचार -अध्यवसाय पैदा हुआ कि - में पूर्वोक्त प्रकार के उदार तप द्वारा शुष्क, रूक्ष एवं कृश हो गया हूँ। मेरा शारीरिक बल क्षीण हो गया है, केवल में आत्म बल से चलता हूँ और खड़ा रहता हूँ। बोलने के बाद, बोलते हुए और बोलने के पूर्व भी मुझे ग्लानि - खेद होता है यावत् पूर्वोक्त गाड़ियों की तरह ही चलते और खडे रहते हुए मेरी हड्डियों से खड़ खड़ आवाज होती है। अतः जबतक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम है और जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक तीर्थङ्कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, गन्धहस्ती की तरह विचरते हैं, तबतक मेरे लिए यह श्रेय - कल्याणकारी है कि इस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर कल प्रातःकाल कमलों को विकसित करने वाले, रक्त अशोक के समान प्रकाश युक्त केसूड़ा के फूल, तोते की चोंच, चिरमी के अर्द्ध भाग जैसा लाल, कमलों के वनों को विकसित करने वाले, हजार किरणों को धारण करने वाले, तेज से जाज्वयमान ऐसे सूर्य के उदय हो जाने पर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जाकर उनको वन्दना नमस्कार करके पर्युपासना करूंगा और भगवान् की आज्ञा लेकर स्वयमेव पांच महाव्रतों को आरोपण करके, साधु-साध्वियों को खमा कर तथारूप के कडाई ( कृतादि - कृतयोगी अर्थात् सेवा करने में समर्थ) स्थविरों के साथ विपुलगिरि ( विपुल पर्वत) पर धीरे धीरे चढ़ कर मेघसमूह के समान वर्ण वाली (काली) देवों के उतरने के स्थान रूप पृथ्वी- शिलापट्ट की प्रतिलेखना करके उस पर डाभ का संथारा बिछा कर, अपनी आत्मा को संलेखना शोसणा से युक्त करके, आहार पानी का सर्वथा त्याग करके, पादपोपगमन (कटी Jain Education International ४४ १ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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