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भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन
उत्कटुकासन से ध्यान करना चाहिए। शेष सब विधि आठवीं प्रतिमा के समान है । (१०) दसवीं का नाम ' तृतीय- सप्तरात्रदिवस की पडिमा है। इसका समय सात दिन रात है । इसमें ग्राम नगरादि के बाहर जाकर 'गोदोह आसन, वीरासन और आम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है। आठवीं, नौवीं और दसवीं पडिमा में आहार पानी की दत्तियों के अतिरिक्त शेष पूर्वोक्त सभी नियमों का पालन किया जाता है। इन तीनों पडिमाओं का समय इक्कीस दिनरात है ।
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- ( ११ ) ग्यारहवीं पंडिमा का नाम 'अहोरात्रि' है । इसका समय एक दिनरात का है अर्थात् यह पडिमा आठ पहर की होती है। चौविहार बेला करके इस पडिमा का आराधन किया जाता है। ग्राम नगरादि के बाहर जाकर दोनों पैरों को कुछ संकुचित करके हाथों को घुटने तक लम्बा करके कायोत्सर्ग किया जाता है। पूर्वोक्त परिमाओं के शेष सभी नियमों का पालन किया जाता है ।
(१२) बारहवीं पडिमा का नाम 'एकरात्रिकी' है। इसका समय केवल एक रात है । इसका आराधन चौविहार तेला करके किया जाता है। इसके आराधक को ग्राम नगरादि से बाहर जाकर शरीर को थोड़ा आगे की ओर झुका कर एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए अनिमेष नेत्रों से निश्चलता पूर्वक सब इन्द्रियों को गुप्त रख कर, दोनों पैरों को संकुचित कर हाथों को घुटनों तक लम्बा करके कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग करते समय देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी कोई उपसर्ग उत्पन्न हो, तो दृढ़ होकर समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। यदि मलमूत्रादि की शंका उत्पन्न हो जाय, तो उसे रोकना नहीं चाहिए, किन्तु पहले से देखे हुए स्थान में उनकी निवृत्ति कर वापिस अपने स्थान पर आकर विधिपूर्वक कायोत्सर्ग में लग जाना चाहिए ।
इस पडिमा का सम्यक् पालन न करने से तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षमा, अमोक्ष तथा आगामी काल में दुःख के लिए होते हैं। यथा-१ देवादि द्वारा किये गये अनुकूल तथा प्रतिकूल परीषह उपसर्गादि को समभावपूर्वक सहन न करने से उन्माद की प्राप्ति हो जाती है । २ लम्बे समय तक रहने वाले रोगादि की प्राप्ति हो जाती है । और ३ वह केवल प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है अर्थात् अपनी प्रतिज्ञा से विचलित हो जाने से वह श्रुत चारित्र रूप धर्म से भी पतित हो जाता है ।
• इस पडिमा का सम्यग् रूप से पालन करने से तीन अमूल्य पदार्थों की प्राप्ति होती है, यथा-१ अवधिज्ञान, २ मन:पर्ययज्ञान और ३ केवलज्ञान, इन तीन ज्ञानों में से एक को
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