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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की प्रवज्या
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वात, पित्त, कफ और सन्निपात आदि से होने वाले अनेक प्रकार के रोग और आतङ्क (तत्काल प्राण हरण करने वाले रोग) एवं परोषह उपसर्गों से मैं इसकी बराबर रक्षा करता हूँ। रक्षित किया हुआ यह आत्मा मुझे परलोक में हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप एवं परम्परा से कल्याणरूप होगा। इसलिए हे भगवन् ! मैं आपके पास प्रवज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। आप स्वयं मुझे प्रवजित करें, मुण्डित करें, आप स्वयं मुझे प्रतिलेखनादि क्रियाएँ सिखावें, सूत्र और अर्थों को पढ़ावें । हे भगवन् ! मैं चाहता हूँ कि-आप मुझे ज्ञानादि आचार गोचर (भिक्षाटन), विनय, विनय का फल, चरण करण अर्थात् चारित्र (व्रतादि) और पिण्ड विशुद्धि संयम यात्रा और संयम यात्रा के निर्वाहार्थ आहारादि ग्रहण रूप धर्म कहें।
- विवेचन-हे भगवन् ! आप स्वयं मुझे रजोहरणादि वेश देकर प्रव्रजित कीजिये, शिर का लोच करके मुण्डित कीजिये । साधु का आचार गोचर विधि, संयम और संयम यात्रा के निर्वाहार्थ आहारादि की मात्रा, और विनय आदि की शिक्षा दीजिये। " तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयं कचायणस्सगोत्तं सयमेव पवावेह, जाव-धम्ममाइस्खइ-एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं निसीइयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं भुंजियव्वं एवं भासियब्वं, एवं उद्याए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियव्वं, अस्सिं च णं अढे णो किंचि वि पमाइयव्वं । तए णं से खंदए कचायणस्सगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं सम्मं संपडिवजह, तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह तुयट्टइ, तह भुंजइ, तह भासइ, तह उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमेइ, अस्सिं च
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