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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की साधना
णं अटे णो पमायइ ।
- विशेष शब्दों के अर्थ-गंतव्य-जाना चाहिये, चिट्ठियव्वं-खड़े रहना चाहिये, जिसीइयव्वं-बैठना चाहिए, तुट्टियम्बं -सोना चाहिये, मुंजियवं-खाना चाहिए, भासियव्वंबोलना चाहिए, उढाए-उठना, संजमियव्वं -संयमित रहना चाहिए । संपडिवज्जइ-स्वीकार करता है, तमाणाए-तद्नुसार, पमाइयव्य-प्रमाद करना चाहिए।
भावार्थ-इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने स्वयमेव कात्यायनगोत्री स्कन्दक परिव्राजक को प्रवजित किया यावत् स्वयमेव धर्म को शिक्षा दी कि-हे देवानुप्रिय ! इस तरह से चलना चाहिए, इस तरह से खड़ा रहना. चाहिए, इस तरह से बैठना चाहिए, इस तरह से सोना चाहिए, इस तरह से खाना चाहिए, इस तरह से बोलना चाहिए । इस तरह सावधाततापूर्वक प्राण, भूत, जीव, सत्त्व के विषय में संयम पूर्वक बर्ताव करना चाहिए । इस विषय में जरासा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
कात्यायनगोत्री स्कन्दक मुनि ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के इस धामिक उपदेश को अच्छी तरह से स्वीकार किया और भगवान की आज्ञा के अनुसार ही स्कन्दक मुनि चलना, खडे रहना, बैठना, सोना, खाना, बोलना आदि क्रिया करने लगे तथा प्राण, भूत, जीव, सत्व के प्रति क्यापूर्वक बर्ताव करने लगे और इन विषयों में जरासा भी प्रमाद नहीं करने लगे। ...विवेचन-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने स्कन्दक मुनि को शिक्षा दी कि-हे देवानुप्रिय ! धूसरा प्रमाण अर्थात् चार हाथ भूमि को आगे देखते हुए चलना चाहिए। हे देवानुप्रिय ! जहाँ बहुत लोगों का आवागमन न हो, ऐसे स्थान पर संयम, आत्मा और प्रवचन को किसी प्रकार की बाधा न पहुँचे, इस तरह से खड़ा रहना चाहिए । स्थान को अच्छी तरह पूंज कर बैठना चाहिए, सामायिकादि के उच्चारण पूर्वक शयन करना चाहिए । बयालीस दोषों से रहित आहार को धूम' 'अंगार' आदि दोषों को टाल कर खाना चाहिए । भाषासमिति पूर्वक हित और मित बोलना चाहिए । सर्वथा प्रकार से प्रमाद का त्याग करके प्राणियों की रक्षा में सावधान रहना चाहिए । इत्यादि रूप से भगवान् ने शिक्षा दी।
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