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भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की प्रभु से प्रार्थना
माणं पिवासा, माणं चोरा, मा णं वाला, मा णं दंसा, मा णं मसगा, -माणं वाइय- पित्तिय-सेंभिय-सण्णिवाहय विविहा रोगायंका परीसहोव सग्गा फुसंतु त्ति कटु एस मे नित्थारिए समाणे परलोयरस हियाए सुहाए खमाएं नीसेसाए आणुगामियत्ताएं भविस्सह । तं इच्छा णं देवाणुप्पिया ! संयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं, सयमेव सेहावियं, सयंमेव सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयरं विणयवे. इयचरण-करण-जाया मायावत्तियं धम्ममा इक्विरं ।
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विशेष शब्दों के अर्थ-आलिते-सुलगा हुआ, पलिते-विशेष जलता हुआ, गाहाबई - गृहपति, अगारंसि - घर में से, ज्झियायमाणंसि - जलते हुए, मोल्ल गुरुए- बहुमूल्य, णित्थारिए - निकाला हुआ, पुराए- पहले, हिंयाए - हितकारी, सुहाए-सुखकारी, समाए - शांति करने वाला, निस्सेय साए - कल्याणकारी, आनुगामियत्ताए - साथ चलनेवाला, बेस्सासिए - विश्वास योग्य, संमए - सम्मत, खुहा क्षुधा, वाला सर्प आदि, वाइय-वात, पित्तय- पित्त, सेंभियश्लेष्म, सन्निवाइय- सन्निपात आयार गोयरं- आचार गोचर, बेणइय - विनयोत्पन्न चारित्र, जाया - मायावत्तियं - संयममात्रा और आहार की मात्रादि वृत्ति ।
भावार्थ- हे भगवन् ! जरा ( बुढ़ापा) और मरण रूपी अग्नि से यह लोक आदीप्त हं प्रदीप्त ( जल रहा है) । जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो, तो वह उसमें से बहुमूल्य और अल्प वजन वाले सामान को सबसे पहले बाहर निकाल कर एकान्त में जाता है और यह सोचता है कि अग्नि में से बचा कर बाहर निकाला हुआ यह सामान भविष्य में आगे पीछे मेरे लिए हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप, और कल्याणरूप होगा। इसी तरह हे भगवन् ! मेरी आत्मा भी एक भाण्ड (बर्तन) रूप है। यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, सुन्दर, मनोज्ञ, विश्वस्त, सम्मत, अनुमत, बहुमत और रत्नों के करंडिये ( पिटारे ) के समान है, इसीलिए ठण्ड, गर्मी, भूख प्यास, चोर, सिंह, सर्प, डांस, मच्छर,
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