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भगजती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की प्रभु
मेयं भंते! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुम्भे वदह त्ति कट्टु समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसह वंदित्ता, नमसिंत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तिदंड च कुंडियं च जाव - धाउरत्ताओ य एगंते एडेह, एडित्ता जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह, करिता जाव -नमंसित्ता एवं वयासी :
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विशेष शब्दों के अर्थ - महइ महालियाए - बहुत बड़ी, परिसाए- परिषद् को, हियहियए - विकसित हृदय वाला, सहामि श्रद्धा करता हूं, पत्तियामि प्रतीति करता हूँ, रोएमरुचि करता हूँ, अब्मट्ठेमि- अभ्युद्यत होता हूँ, एवमेवं इसी प्रकार है, तहमेयं वैसा ही है, अवितहमेयं - विशेषरूप से सत्य है, असंदिद्धमेयं - सन्देह रहित है, इच्छियमेयं - इष्ट है, पडिच्छियमेयं विशेष रूप से इष्ट है, जहेयं जैसा, वदह कहा है, अवक्कमइ - जाता है, एडे छोड़ता है ।
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से प्रार्थना
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भावार्थ - इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कात्यायन गोत्री स्कन्दक परिव्राजक को और उस बहुत बडी परिषद् को धर्मकथा कही । (यहाँ धर्मकथा का वर्णन करना चाहिए ) । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा फरमाई हुई धर्मकथा को सुनकर एवं हृदय में धारण करके स्कन्दक परिव्राजक को बड़ा हर्ष - सन्तोष हुआ एवं उसका हृदय हर्ष से विकसित हो गया । तदनन्तर खडे होकर और भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा करके स्कन्दक परिव्राजक ने इस प्रकार कहा कि- "हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता हूँ एवं निर्ग्रन्थ प्रवचनों को में स्वीकार करता हूँ । है भगवन् ! ये निर्ग्रन्थ प्रवचन इसी प्रकार हैं, सत्य हैं, सन्देह रहित हैं, इष्ट हैं,
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