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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-पंडितमरण के भेद
पंडियमरणे। इच्चेएणं खंदया ! दुविहेणं मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढइ वा, हायइ वा।
एत्थ णं खंदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीः-इच्छामिणं भंते ! तुझं अतिए केवलोपण्णत्तं धम्मं निसामित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । .
विशेष शब्दों के अर्थ-पाओवगमणे-पादपोपगमन, गोहारिमे- निर्हारिम, अणीहारिमे-अनिर्हारिम, वीईवयइ–भ्रमण करता है, संबुद्ध-बोध पाये, निसामित्तएसुनना चाहता हूं, पडिबंध-विलम्ब ।
भावार्थ-हे स्कंदक ! पण्डितमरण के दो भेद हैं-१ पादपोपगमन और २ भक्तप्रत्याख्यान । पादपोपगमन के दो भेद है-निर्झरिम और अनिर्झरिम । यह दोनों प्रकार का पादपोपगमन मरण, नियमा (नियम से-निश्चित रूप से) अप्रतिकर्म होता है। भक्तप्रत्याख्यान मरण के भी दो भेद हैं-निर्दारिम और अनि रिम । यह दोनों प्रकार के भक्तप्रत्याख्यान मरण सप्रतिकर्म होता है। हे स्कन्दक ! इन दोनों प्रकार के पण्डितमरण से मरता हुआ जीव, नरकादि के अनन्त भवों को प्राप्त नहीं करता है, यावत् संसार रूपी अटवी को उल्लंघन कर जाता है । इन दोनों प्रकार के पण्डितमरण से मरते हुए जीव का संसार घटता है।
भगवान् के उपर्युक्त वचनों को सुन कर स्कन्दक परिव्राजक को बोध हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके कहा कि-'हे भगवन् ! मैं आपके पास केवलि प्ररूपित धर्म सुनना चाहता हूं।' भगवान् ने कहा कि-'हे देवानुप्रिय ! तुम्हें सुख हो वैसा करो, किंतु धर्म कार्य में विलम्ब मत करो।'
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