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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक की प्रभु से प्रार्थना
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प्रतीष्ट हैं, इष्टप्रतीष्ट हैं, हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं वैसा ही हैं।" ऐसा कह कर स्कन्दक परिव्राजक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके उत्तर-पूर्व दिशा के भाग (ईशान कोण) में जाकर त्रिदण्ड कुण्डिका यावत् गेरुए वस्त्र आदि परिव्राजक के भण्डोपकरणों को एकान्त में छोड़ दिया। फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बिराजते थे वहाँ आकर भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके इस प्रकार बोले ।
विवेचन-भगवान् ने स्कन्दक परिव्राजक और उस विशाल परिषद् को धर्मकथा कही । अर्थात् यह बतलाया कि जीव किस प्रकार कर्मों को बांधते हैं ? और उनसे किस प्रकार छुटकारा पाते हैं ? आर्तध्यानादि के द्वारा जीव किस प्रकार कर्मों को बांध कर संसारसागर में परिभ्रमण करते हैं और किस प्रकार वैराग्य को प्राप्त कर कर्मों के बन्धन को तोड़ कर मुक्ति प्राप्त करते हैं ? - भगवान् द्वारा फरमाई हुई धर्मकथा को सुन कर स्कन्दक परिव्राजक को निर्ग्रन्य प्रवचनों पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि उत्पन्न हुई। उन्होंने परिव्राजक के भण्डोपकरणों को एकान्त में डाल कर भगवान् के पास दीक्षा अंगीकार करने की इच्छा प्रकट की और निवेदन किया। ____ आलित्ते णं भंते ! लोए, पलिते णं भंते ! लोए, आलित्तपलिते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य । से जहाणामए केइ गाहावई अगारंसि ज्झियायमाणंसि, जे से तत्थ भंडे भवइ, अप्पभारे मोल्लगुरुए तं गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमह । एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुराए हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सह । एवामेव देवाणुप्पिया ! मज्झ वि आया. एगे भंडे इटे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेस्सासिए संमए अणुमए बहुमए भंडकरंडगसमाणे, मा णं सीयं मा णं उण्हं मा णं सुहा
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