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। भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक
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वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासीः-पहू णं भंते ! खदए कचायणस्सगोत्ते देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता णं, अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? हंता, पभू । जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमढे परिकहेइ, तावं च णं से खंदए कचायणस्सगोते. तं देसं हवं आगए।
. विशेष शब्दों के अर्थ-वच्छिसि-देखेगा, पुश्वसंगइयं-पूर्व का सम्बन्धी, केवच्चिरेण- . कुछ काल के बाद, अदूरागते-निकट आया, बहुसंपत्ते-अति निकट आया, अडाणपडिवण्णेमार्ग पर चलता हुआ, अंतरापहे-अन्तर पथ, वट्टइ-वर्त रहा है।
भावार्थ-इधर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य श्री इन्द्रभूति अणगार से इस प्रकार कहा कि-हे.गौतम ! आज तू अपने पूर्व के साथी को देखेगा। तब गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! मैं आज अपने किस पूर्व साथी को देखूगा ? तब भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! तू आज अपने 'स्कन्दक परिवाजक' को देखेगा। तब गौतम स्वामी ने पूछा-हे भगवन् ! मैं उसे कब, किस तरह से और कितने समय बाद देखूगा? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नगरी थी। वहां. गर्दभाली का शिष्य कात्यायन गोत्री स्कन्दक नाम का परिव्राजक रहता था। इसका पूरा विवरण पहले के अनुसार जान लेना चाहिये । यावत् वह अपने स्थान से रवाना होकर मेरे पास आ रहा है । बहुत-सा मार्ग पार कर निकट पहुंच गया है। मार्ग में चल रहा है। हे गौतम ! तू आज ही उसे देखेगा।
फिर गौतम स्वामी ने वन्दना नमस्कार करके पूछा कि-हे भगवन् ! क्या स्कन्दक आपके पास दीक्षा लेगा? भगवान् ने फरमाया कि हां, गौतम ! वह मेरे पास दीक्षा लेगा।
जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी गौतम स्वामी से इस प्रकार कह ही रहे थे कि इतने में कात्यायन गौत्री स्कन्दक परिव्राजक उस प्रदेश में आया।
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