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भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक
वचनों को सुनने वाला, मागहा – हे मागध!, आयक्खाहि — कह - बतला |
भावार्थ - उसी श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक अर्थात् भगवान् महावीर स्वामी के वचनों को सुनने में रसिक पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ था । एक समय वह वैशालिक श्रावक पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ (साधु) कात्यायन गोत्री स्कन्दक तापस के पास आया और उसने आक्षेप पूर्वक स्कन्दक परिव्राजक से इस प्रकार पूछा कि - हे मागध ! (मगध देश में जन्मे हुए) १ क्या लोक सान्त ( अन्त वाला ) है ? या अनन्त ( अन्त रहित ) है ? २ क्या जीव सान्त है ? या अनन्त है ? ३ क्या सिद्धि सान्त है ? या अनन्त है ? ४ क्या सिद्ध सान्त हैं ? या अनन्त ५ किस मरण से मरता हुआ जीव, संसार बढ़ाता है और
किस मरण से मरता हुआ जीव संसार घटाता है ?
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विवेचन – उस स्कन्दक परिव्राजक के समीप भ० महावीर की वाणी सुनने के रसिक पिंगल नाम के निर्ग्रन्थ आये । पिंगल निर्ग्रन्थ के मन में निर्ग्रन्य-प्रवचन के प्रति गाढ़ श्रद्धा थी । वे सोचते थे कि निर्ग्रन्थ प्रवचन के समान अन्यतीर्थियों के प्रवचन है ही नहीं । निर्ग्रन्थ प्रवचन की अपूर्वता का परिचय देने के लिए वे परिव्राजक सम्प्रदाय के उद्भट विद्वान् स्कन्दकजी के पास आये और उपरोक्त पाँच प्रश्न पूछे। इन प्रश्नों के अन्तर में कल्याणकारी तत्त्वज्ञान समाया हुआ था ।
तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते. पिंगलएणं नियंठेणं, वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए, कंखिए, वितिगिच्छिए, भेदसमावण्णे, कलुससमावण्णे णो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स, वेसालियसावयस्स किंचि वि पमोक्खमक्खाइउं, तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं से पिंगलए नियंठे, वेसालीसावए खंदयं कच्चायसगोतं दोच्चं पि, तच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छे -मागहा ! किं सअंते लोए, जाव - केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढह वा, हायह वा ?
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