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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक
करना चाहिए। उस कृतंगला नगरी के बाहर उत्तर और पूर्व दिशा के बीच में अर्थात् ईशान कोण में 'छत्रपलाशक नाम का चैत्य था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहां किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे । यावत् भगवान् का समवसरण हुआ। परिषद् (जनता) धर्मोपदेश सुनने के लिए गई।
उस कृतंगला नगरी के पास में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उस श्रावस्ती नगरी का वर्णन करना चाहिए। उस श्रावस्ती नगरी में कात्यायन गोत्री, गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य 'स्कन्दक' नामका परिव्राजक (तापस) रहता था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वणवेद, इन चार वेदों, पांचवां इतिहास, छठा निघण्टु नाम का कोश, इन सब का अंगोपांग सहित रहस्य का जानकार था। वह इनका 'सारक' (स्मारक) अर्थात् इनको पढ़ाने वाला था, इसलिए इनका प्रवर्तक था अथवा जो कोई वेदादि को भूल जाता था उसको वापिस याद कराता था, इसलिए वह उनका 'स्मारक' था। वह 'वारक' था अर्थात् जो कोई दूसरे लोग वेदादि का अशुद्ध उच्चारण करते थे, तो उनको रोकता था, इसलिए वह वारक' था । वह 'धारक' था अर्थात् पढ़े हुए वेदादि को नहीं भूलने वाला था अपितु उनको अच्छी तरह धारण करने वाला था। वह वेदादि का पारक'-पारंगत था। छह अंगों का ज्ञाता था । षष्ठितन्त्र (कापिलीय शास्त्र) में विशारद (पण्डित) था। वह गणित शास्त्र, शिक्षा शास्त्र, आचार शास्त्र, व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र, व्युत्पत्ति शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, इन सब शास्त्रों में तथा दूसरे बहुत से ब्राह्मण और परिव्राजक सम्बन्धी नीति शास्त्रों में और दर्शन शास्त्रों में बड़ा चतुर था। . विवेचन-पहले के प्रकरण में संयमी साधु की संसार हानि वृद्धि तथा सिद्धत्व आदि का वर्णन किया गया है । अब पूर्वोक्त बात तथा दूसरी बातों को बताने के लिये स्कन्दक मुनि के चरित्र का वर्णन किया गया है। .. स्कन्दक मुनि पहले गर्दमाल नामक परिव्राजक के शिष्य थे । वे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद, इन चार वेदों का तथा इतिहास (पुराण) और निघण्टु नामक कोश,
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