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भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भ विचार
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चित् आहार करता है, कदाचित् परिणमाता है, कदाचित् उच्छ्वास लेता है, कदाचित् निःश्वास लेता है, तथा पुत्रजीव को रस पहुंचाने में कारणभूत और माता के रस लेने में कारणभूत जो 'मातृजीवरस हरणी' नाम की नाडी है, वह माता के जीव के साथ संबद्ध है और पुत्र के जीव के साथ स्पृष्ट-जुडी हुई है, उस नाडी द्वारा पुत्र का जीव आहार लेता है और आहार को परिणमाता है। एक दूसरी और नाडी है जो पुत्र के जीव के साथ संबद्ध है और माता के जीव से स्पृष्ट-जुडी हुई होती है, उससे पुत्र का जीव आहार का चय करता है, और उपचय करता है । हे गौतम ! इस कारण गर्भ में गया हुआ जीव, मुख द्वारा कवलाहार लेने में समर्थ नहीं है।
विवेचन-इन्द्रिय के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। पौद्गलिक रचना विशेष को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । इसके दो भेद हैं–निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय और उपकरण द्रव्येन्द्रिय । इन्द्रियों की बाहरी आकृति को 'निर्वति' कहते हैं और उसके सहायक को 'उपकरण' कहते हैं। भावेन्द्रिय के भी दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग । 'लब्धि' का अर्थ है-शक्ति, जिसके द्वारा आत्मा शब्दादि का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है, उसे लब्धिइन्द्रिय कहते हैं । उपयोग का अर्थ है-ग्रहण करने का व्यापार ।
जब जीव, एक गति का आयुष्य समाप्त कर दुसरी गति में माता के गर्भ में उत्पन्न होता है, तब वह भावेन्द्रिय सहित (द्रव्येन्द्रिय रहित) उत्पन्न होता है। .. • शरीर के पाँच भेद हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस् और कार्मण । इनमें से औदारिक, वैक्रिय और आहारक, ये तीन गरीर 'स्थूल शरीर' हैं और तेजस्, कार्मण ये दो शरीर ‘सूक्ष्म शरीर' हैं । तेजस् और कार्मण, ये दो शरीर अनादिकालीन हैं और सभी संसारी जीवों के होते हैं । खाये हुए आहार को पचाना और शरीर में ओज उत्पन्न करने का गुण तेजस् शरीर का है । कर्मों का खजाना कार्मण शरीर कहलाता है । यही शरीर जन्म जन्मान्तर का कारण है । जब जीव गर्भ में आता है, तब तेजस और कार्मण के साथ आता है। इन दोनों शरीरों की अपेक्षा जीव शरीर सहित गर्भ में आता है और औदारिक, वैक्रिय, आहारक, इन तीन शरीरों की अपेक्षा जीव शरीर रहित गर्भ में आता है।
गर्भ में पहुंचने के प्रथम समय में जीव माता के आर्तव (ऋतु सम्बन्धी रज) और पिता के वीर्य का जो सम्मिश्रण होता है उसे ग्रहण करता है । तत्पश्चात् माता द्वारा ग्रहण
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