________________
भगवती सूत्र - श. १ उ. १० क्रिया और दुःख
३२३ - " पुव्विं किरिया अदुक्खा । जहा भासा तहा भाणि - यव्वा । किरिया वि जाव - करणओ सा दुबखा णो खलु सा अकरओ दुक्खा, सेवं वत्तव्वं सिया । "
३७०
३२४ - " किच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं, कज्जमाणकर्ड दुक्खं कट्टु कट्टु पाण-भूय-जीव-सत्ता वेदणं वेदेंति इति वत्तव्वं सिया ।”
विशेष शब्दों के अर्थ – कट्टु — करके ।
३२३ –करने से पहले की क्रिया दुःख का कारण नहीं है, उसे भाषा के समान ही समझना चाहिए। यावत् वह क्रिया करने से दुःख का कारण है, नहीं करने से दुःख का कारण नहीं है। ऐसा कहना चाहिए ।
३२४ - कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाणकृत दुःख है, उसे कर करके प्राण, भूत, जीव, सत्त्व वेदना भोगते हैं। ऐसा कहना चाहिए ।
विवेचन - इसी प्रकार अन्यतीर्थिक लोग, क्रिया के विषय में भी कहते हैं । भगवान् फरमाते हैं कि - हे गौतम! अन्यतीर्थिकों का यह कथन मिथ्या है, क्योंकि करने से पहले की क्रिया और क्रिया समय व्यतिक्रान्त कृतक्रिया दुःख का कारण नहीं है, किन्तु क्रिया करने से ही दुःख का कारण है । कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाणकृत दुःख है । उसे कर करके ही प्राण, भूत, जीव सत्त्व वेदना भोगते हैं । यह अनुभवसिद्ध भी है । प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, किसे कहते हैं ? इस विषय में टीकाकार ने एक श्लोक उद्धृत किया है।
प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥
अर्थ- बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव 'प्राण' कहलाते हैं । वनस्पतिकाय को 'भूत' कहते हैं । पञ्चेन्द्रिय को 'जीव' कहते हैं और शेष चार स्थावरों (पृथ्वीकाय, अकाय, तेउकाय, और वायुकाय) को 'सत्त्व' कहते हैं ।
प्राण, भूत, जीव, सत्त्व की यह व्याख्या भी की जाती है और दूसरी व्याख्या भी की जाती है कि ये चारों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं अर्थात् प्राण, भूत, जीव, सत्त्व
-
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org