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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ मृतादी अनगार
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इस शंका का समाधान यह है कि जीव को श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता रहती है, निर्जीव को श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता नहीं रहती। वायकाय जीव है, इसलिए उसे श्वासोच्छवास की आवश्यकता रहती है। किन्तु जो वायु श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण होती है, वह वायु निर्जीव है। इसलिए उसको श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए अनवस्था दोष नहीं आ सकता। दूसरी बात यह है कि वायुकाय, जिस वायु को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करती है वह इसके औदारिक वैक्रिय रूप नही है, किन्तु वे श्वासोच्छ्वास के पुद्गल वायुकाय के औदारिक और वैक्रिय शरीर के पुद्गलों की अपेक्षा अनन्त गण प्रदेश वाले होने से सूक्ष्म हैं। इसलिए श्वासोच्छवास रूप वाय. इस चैतन्य वायु के शरीर रूप नहीं है । तात्पर्य यह है कि श्वासोच्छ्वास रूप वायु जड है, इसलिए उसको श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता नहीं है । इसलिए अनवस्था दोष नहीं आता है। - यहाँ वायुकाय का प्रकरण चल रहा है इसलिए गौतम स्वामी ने वायुकाय की कायस्थिति के विषय में प्रश्न किया है, अन्यथा यह प्रश्न तो पृथ्वीकायादि में भी लागू पड़ता है। जैसा कि कहा है
असंखोसप्पिणीओस्सप्पिणीउ, एगिवियाण पउण्हं । ...ता चेव उ अर्णता, वणस्सईए उ बोडव्या ॥ . अर्थ—पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, इन चार की कायस्थिति असंख्य अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक है । और वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणी पर्यन्त है।
- वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाखों बार मर कर वायुकाय में ही उत्पन्न हो जाता है । वायुकाय, स्वकाय शस्त्र के साथ में अथवा परकाय शस्त्र के साथ स्पृष्ट होकर मरण को प्राप्त होता है, बिना स्पृष्ट हुए मरण को प्राप्त नहीं होता है । यह सूत्र सोपक्रम । आयुवाले जीवों की अपेक्षा है। वायुकाय के चार शरीर हैं, जिनमें से औदारिक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा तो वह अशरीरी होकर परलोक में जाता है और तैजस कार्मण शरीर की अपेक्षा सशरीरी परलोक में जाता है ।
मतादी अनगार
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१३ प्रश्न-पडाई णं भंते ! नियंठे जो निरुद्धभवे, णो निरुद्ध.
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