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भगवती सूत्र--श. २ उ. १ मृतादी अनगार
से तेणटेणं पाणे त्ति वत्तव्वं सिया, जाव-वेए त्ति वत्तव्वं सिया।
_ विशेष शब्दों के अर्थ-मडाई-मृतादी अर्थात् प्रासुक-भोजी, गिट्ठियढ़े-निष्ठितार्थ, इत्यत्थं-यहाँ, मनुष्यभवादि रूप, विष्णू-विज्ञ, निरुद्धभवे-भव का अवरोध करने वाला, निरुद्धभवपबंचे-भव-प्रपंच का निरोध करना, पहीणसंसारे-संसार क्षीण करना, वोच्छिण्णसंसार-संसार का छेदन करना । ___भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया है, संसार के प्रपञ्चों का निरोध नहीं किया है, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ है, जिसका संसार वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ है, जिसका संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ है, जिसका संसार वेदनीय व्युच्छिन्न नहीं हुआ है, जो निष्ठितार्थ-प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ है, जिसका कार्य समाप्त नहीं हुआ है, ऐसा मतादी अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त होता है ? .: १३ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला निर्ग्रन्थ, फिर मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त होता है।
१४ प्रश्न-पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए ?
१४ उत्तर-हे गौतम ! उसे कदाचित् 'प्राण' कहना चाहिए, कदाचित् 'भूत' कहना चाहिए, कदाचित् 'जीव' कहना चाहिए, कदाचित् 'सत्त्व' कहना चाहिए, कदाचित् 'विज्ञ' कहना चाहिए, कदाचित् 'वेद' कहना चाहिए और कदाचित् 'प्राण, भूत, सत्त्व, विज्ञ और वेद' कहना चाहिए।
१५ प्रश्न-हे भगवन् ! उसे 'प्राण' कहना चाहिए यावत् 'वेद' कहना चाहिए, इसका क्या कारण है ? .... १५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ का जीव, बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेता है और छोड़ता है, इसलिए उसे 'प्राण' कहना चाहिए। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य काल में रहेगा, इसलिए उसे 'भूत' कहना चाहिए। वह जीता है, जीवत्व और आयुष्य कर्म का अनुभव करता है, इसलिए उसे 'जीव' कहना चाहिए । वह शुभ और अशुभ कर्मों से संबद्ध है,
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