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भगवती सूत्र-श. १ उ. १० उपपात विरह
इसका समाधान यह है कि केवल शब्द की व्युत्पत्ति से ही काम नहीं चलता । व्युत्पत्ति के साथ शब्द की प्रवृत्ति भी निमित्त मानी जाती है। भगवान् के कहने का आशय यह है कि जब कषाय है तब ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि ऐर्यापथिकी क्रिया कषाय न होने पर ही होती है। जब तक कषाय है तबतक साम्परायिकी क्रिया ही होती है, ऐर्यापथिकी नहीं होती। जब कषाय नहीं होता है तब साम्परायिकी क्रिया नहीं हो सकती, इस प्रकार एक जीव एक समय में दो क्रिया नहीं कर सकता, किन्तु एक समय में एक ही क्रिया करता है।
उपपात विरह ३२६ प्रश्न-निरयगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता ? ___३२६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एपकं समय, उकोसेणं बारस मुहुत्ता । एवं वक्कंतीपयं भाणियव्वं निरवसेसं ।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहरइ । .. .॥दसमो उद्देसो समत्तो ॥ विशेष शब्दों के अर्थ-विरहिया-विरहित, उववाएण-उपपात की अपेक्षा।
भावार्थ-३२६ प्रश्न-हे भगवन् ! नरक गति, कितने समय तक उपपात से विरहित रहती है ?
३२६ उत्तर--हे गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहर्त तक नरक गति उपपात से रहित रहती है । इसी प्रकार यहाँ सारा व्युत्क्रान्ति पद कहना चाहिए।
- हे भगवन् ! यह ऐसा ही है । यह ऐसा ही है। ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं।
विवेचन-गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! ऐसा कितना समय व्यतीत
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