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भगवती सूत्र-श. १ उ. ८ वीर्य विचार
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हैं और जो नारकी जीव, उत्थान कर्म बल वीर्य, पुरुषकार पराक्रम से रहित हैं वे लन्धिवीर्य से सवीर्य हैं और करणवीर्य से अवीर्य हैं । इसलिए हे गौतम ! इस कारणं से पूर्वोक्त कथन किया गया है।
२७९-जिस प्रकार नारकी जीवों का कथन किया गया है, उसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि तक के जीवों के लिए समझ लेना चाहिए । मनुष्यों के विषय में सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए, विशेषता यह है कि सिखों को छोड़ देना चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का कथन नारकी जीवों के समान समझना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर गौतम स्वामी विचरते हैं।
विवेचन-एक प्रकार का आत्मबल 'वीर्य' कहलाता है । जब वह आत्मबल किसी प्रकार की क्रिया नहीं करता, तब वह 'लब्धिवीर्य' कहलाता है और जब वह क्रिया में संलग्न होता है तब 'करण वीर्य' कहलाता है। ... . जीवों के दो भेद हैं-सिद्ध और संसारी । सिद्ध जीव अवीर्य हैं, क्योंकि वे कृतकार्य हो चुके हैं, उन्हें कोई भी कार्य करना अवशेष नहीं रहा है। संसारी जीवों में जो शैलेशी प्रतिपन्न हैं, वे चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी केवली है, उनकी स्थिति पांच ह्रस्व लघु अक्षर उच्चारण करने जितनी है, वे लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य की अपेक्षा.अवीर्य हैं । अशलेशी प्रतिपन्न जीव लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं।
. नारकी जीव लब्धिवीर्य और करणवीर्य दोनों की अपेक्षा सवीर्य है, किन्तु किसी में करणवीर्य कभी होता है और कभी नहीं भी होता है।
. जिस प्रकार नारकी जीवों का कथन किया है उसी प्रकार मनुष्यों को छोड़ कर शेष सभी जीवों का कथन करना चाहिए । मनुष्यों के विषय में सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि सिद्ध जीवों को छोड़ देना चाहिए । क्योंकि ओधिक (सामान्य) जीवों में तो सिद्ध सम्मिलित हैं, किन्तु मनुष्य में सिद्ध सम्मिलित नहीं हैं।
. ॥ प्रथम शतक का आठवां उद्देशक समाप्त ॥
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