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भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ एषणीय आहार का फल
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३०६ प्रश्न-से केणटेणं जाव-वीइवयइ ? - ३०६ उत्तर-गोयमा ! फासु-एसणिजं भुंजमाणे समणे णिग्गंथे आयाए धम्मं णो अइक्कमइ, आयाए धम्मं अणइक्कममाणे पुढविकाइयं अवकंखइ, जाव-तसकायं अवकंखइ; जेसि पि य णं जीवाणं सरीराइं आहारेइ, ते वि जीवे अवकंखइ से तेणटेणं जाववीइवयइ । . विशेष शब्दोंके अर्थ-फासुएसणिज्ज-प्रासुक और एषणीय-निर्दोष, नवरं-विशेष में ।
भावार्थ-३०५ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रासुक और एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, क्या बांधता है ? और यावत् किसका उपचय करता है ?
३०५ उत्तर-हे गौतम! प्रासुक एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, आय कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की दृढ़ बन्धन से बंधी हुई प्रकतियों को ढीली करता है। उसे, संवृत अनगार के समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि आयु कर्म को कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बाँधता। शेष उसी प्रकार समझना चाहिए। यावत् संसार को पार कर जाता है।
३०६ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि यावत् संसार को पार कर जाता है ?
३०६ उत्तर-हे गौतम ! प्रासुक एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, अपने आत्म-धर्म का उल्लंघन नहीं करता है। अपने आत्मधर्म का उल्लंघन नहीं करता हुआ वह श्रमण निर्ग्रन्थ, पृथ्वीकाय के जीवों का जीवन चाहता है यावत् त्रसकाय के जीवों का जीवन चाहता है और जिन जीवों का शरीर उसके भोग में आता है, उनका भी जीवन चाहता है । इस कारण से हे गौतम! वह यावत् संसार को पार कर जाता है।
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