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भगव
-श. १ उ. ९ आधाकर्म भोगने का फल
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वाली प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है अथवा उन्हें 'निकाचित' अवस्था वाली करता है।
स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचित इन कर्मबन्ध की चार अवस्थाओं को समझाने के लिए सुइयों का दृष्टान्त दिया गया है । जैसे-एक पर एक सुइयां रखी हुई हो वह सुइयों का पुंज है, परन्तु वह जरा-सा धक्का लगते ही बिखर जाता है । इसी प्रकार जो कर्मबन्ध थोडा-सा प्रयत्न करने से ही निर्जीर्ण हो जाता है अर्थात जो सुइयों के ढेर के समान है, उसे 'स्पृष्ट कर्म बन्ध' कहते हैं।
यदि उस सुइयों के पुञ्ज को किसी धागे से बांध दिया जाय, तो वे धक्का लगने से नहीं बिखरती, किन्तु किसी तरह की क्रिया विशेष से ही खुल सकती हैं, इसी प्रकार जो कर्म थोड़ी क्रिया विशेष से हट जाते हैं वे 'बद्ध' अवस्था वाले कहलाते हैं। .. जैसे उन सुइयों के पुञ्ज को किसी लोहे के तार से खूब कस कर बांध दिया जाय, तो वे सुइयां किसी विशिष्टतर क्रिया से ही खुल सकती हैं, इसी तरह जो कर्म विशिष्टतर क्रिया से निर्जीर्ण हो सकें, वे कर्म 'निधत्त' अवस्था वाले कहलाते हैं।
: . चौथा 'निकाचित बन्ध' है । जैसे-उस सुइयों के पुञ्ज को गर्म करके धन से ठोक दिया जाय, तो वे सुइयाँ एकमेक हो जाती हैं । फिर उनका बिखरना संभव नहीं है । फिर तो सुई बनाने की क्रिया करने पर ही वे अलग हो सकती हैं। इसी तरह जो कर्म किसी भी क्रिया से न्यूनाधिक नहीं होते हैं, किन्तु जिस साता असाता आदि रूप में बांधे हैं उसी रूप में भोगने पर छूटते हैं, उनका बन्ध 'निकाचित बन्ध' कहलाता है। 'उवचिणइ' का अभिप्राय 'निकाचित' कर्म बन्ध से है, अर्थात् पहले जो सामान्य कर्म बांधे हैं, उन्हें 'निकाचित' करना उपचय' करना कहलाता है।
धनियबंधनवसायो पकर जाव अणुपरियट्टह' यहां पर 'जाव' शब्द से इतने पाठ का अध्याहार करना चाहिए-~
'हस्सकालठियामो, गेहकालव्हियाओ पकरेइ । मंदाणुभावाओ तिन्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसगामो बहुप्पएसगाओ पकरेइ, आउयं च कम्मं सिय बंधइ सिय णो बंधा, मस्सायावेयनिम्बंच कम्मं मुज्जो मुज्जो उवचिणइ, अणाइयं च गं अगवयग्गं बोहमदं चाउरतं संसारकंतारं अनुपरियट्टई' ___ अर्थः-अल्पकाल की स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकाल की स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाग वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाग वाली करता है, अल्प प्रदेश वाली
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