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भगवती सूत्र -
श. १ उ. ९ आधाकमं भोगने का फल
३०४ प्रश्न - से केणट्टेणं जाव - अणुपरियद्इ ?
३०४ - उत्तर - गोयमा ! आहाकम्मं णं भुजमाणे आयाए धर्म अइक्कमइ, आयाए धम्मं अइक्कममाणे पुढविक्काइयं णावकंखर, जाव-तसकायं णावकंखड जेसिं पि य णं जीवाणं सरीराडं आहारं आहारेइ ते वि जीवे नावकखइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइआहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओं सत्तकम्मपगडीओ, जाबअणुपरिट्टह ।
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विशेष शब्दों के अर्थ - आहाकम्मं - आधाकर्म दोषयुक्त, अइक्कमइ - अतिक्रमण करता है = उल्लंघन करता है, आयाए - आत्मा का, चिणाइ-चय करता हैं = बढ़ाता है, उबचिणाई - उपचय करता है = विशेष बढ़ाता है ।
भावार्थ - ३०३ प्रश्न - हे भगवन् ! आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि भोगता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ, क्या बांधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ?
३०३ उत्तर - हे गौतम ! आधाकर्म दोष युक्त आहारावि भोगता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ, आयु कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की शिथिल बंधी हुई कर्म-प्रकृतियों को दृढ़ बन्धन से बन्धी हुई करता है यावत् संसार में बारबार परिभ्रमण करता रहता है ।
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- ३०४ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि यावत् वह संसार में बारबार परिभ्रमण करता है ?
३०४ उत्तर - हे गौतम ! आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि को भोगता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ, अपने आत्मधर्म का उल्लंघन करता है । अपने आत्मधर्म का उल्लंघन करता हुआ पृथ्वीकाय के जीवों की अपेक्षा ( परवाह नहीं करता
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