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भगवती सूत्र - श. १ उ. ९ आकाशादि का गुरुत्व लघुत्व
अप्रकट रूप से विद्यमान हों ऐसा आसक्ति रूप जीव का परिणाम । ११ द्वेष - क्रोध और मान जिसमें अप्रकट रूप से विद्यमान हों ऐसा अप्रीति रूप जीव का परिणाम । १२ कलह . -झगड़ा, राड़ करना । १३ अभ्याख्यान झूठा दोषारोपण करना । १४ पैशुन्य - चुगली | १५ पर परिवाद - निन्दा करना । १६ अरतिरति - मोहनीय कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर जो उद्वेग होता है वह 'अरति' है और इसी के उदय से अनुकूल विषयों के प्राप्त होने पर चिस में जो आनन्द रूप परिणाम उत्पन्न होता है वह 'रति' है । तथा धार्मिक कार्यों में उदासीनता 'अरति' कहलाती है । और धार्मिक कार्यों में रुचि होना 'रति' . कहलाती है । जब जीव को एक विषय में 'रति' होती है तब दूसरे विषय में स्वतः 'अरति ' हो जाती है । यही कारण है कि एक वस्तु विषयक रति को ही दूसरे विषय की अपेक्षा से अरति कहते हैं । इसलिए दोनों को एक पाप-स्थानक गिना है । १७ मायामृषा - माया पूर्वक झूठ बोलना । १८ मिथ्यादर्शन शल्य - श्रद्धा का विपरीत होना। इन अठारह पापों का सेवन करने से जीव कर्मों का संचय कर भारी बनता है । और इनका त्याग करने से जीव हलका होता है ।
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इनमें चार (हलकापन, संसार को घटाना, छोटा करना और उल्लंघ जाना ) प्रशस्त है । और चार ( भारीपन, संसार को बढ़ाना, लम्बा करना और संसार परिभ्रमण करना) अप्रशस्त हैं ।
२८३ प्रश्न-सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे किं गरुए, लहुए, गरुयलहुए, अगरुयलहुए ? णो गरुयल हुए.
णो लहुए,
२८३ उत्तर - गोयमा ! णो गरुए,
अगरुपलहुए ।
२८४ प्रश्न - सत्तमे णं भंते! तणुवाए किं गरुए, लहुए, गरुय
लहुए, अगरुयलहुए ?
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२८४ उत्तर—गोयमा ! णो गरुए, जो लहुए, गरुयलहुए, जो
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