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काल
भगवती सूत्र -
- श. १ उ. ९ निर्ग्रन्थों के लिए प्रसस्त
सव्वदव्वा सव्वपएसा, सव्वपज्जवा जहा पोग्गलत्थिकाओ । तीयद्धा; अणागयद्वा, सव्वद्धा चउत्थेणं पणं ।
विशेष शब्दों के अर्थ-तीयद्धा-अतीतकाल, अणागयद्वा - अनागतकाल, सम्बद्धा-सर्व
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२९१ - दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, अज्ञान और संज्ञा को चौथे पद से ( अगुरुलघु) जानना चाहिए । औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तेजस् इन चार शरीरों को तीसरे पद से (गुरुलघु) जानना चाहिए। कार्मण शरीर अगुरुलघु है । मनयोग और ववन योग - चतुर्थपद (अगुरुलघु ) हैं । काययोग तृतीयपद ( गुरुलघु) हैं। साकारोपयोग और अनाकारोपयोग चतुर्थपद ( अगुरुलघु ) हैं । सर्व द्रव्य, सर्व प्रवेश और सर्व पर्याय, पुद्गलास्तिकाय के समान समझना चाहिए । अतीत काल, अनागत ( भविष्य ) काल और सर्वकाल चौथे पद से अर्थात् अगुरुलघु जानना चाहिए ।
विवेचन - तीन दृष्टि, चार दर्शन, पांच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार संज्ञा, ये सब अगुरुलघु हैं । द्रव्य, प्रदेश और पर्याय का कथन पुद्गलास्तिकाय के समान कहना चाहिए । अर्थात् उन्हें गुरुलघु और अगुरुलघु कहना चाहिए । जो द्रव्य, सूक्ष्म ( चतुःस्पर्शी ) है और जो अमूर्त हैं, वे अगुघुरुलघु हैं । जो द्रव्य बादर हैं, वे गुरुलघु हैं । प्रदेश और पर्याय तो द्रव्य के ही होते हैं । इसलिए उनका कथन द्रव्य के समान है ।
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तात्पर्य यह है कि अमूर्त और सूक्ष्म चतुःस्पर्शी पुद्गल अगुरुलघु हैं । इनमें चौथा . भंग पाया जाता है । इनके सिवाय शेष समस्त पदार्थ गुरुलघु हैं । इनमें तीसरा भंग पाया जाता है। पहला और दूसरा भंग शून्य है अर्थात् ये दोनों भंग किसी भी पदार्थ में नहीं पाये जाते हैं ।
निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त
२९२ प्रश्न - से णूणं भंते ! लाघवियं, अप्पिच्छा, अमुच्छा, अगेही, अपडिबद्धया समणाणं णिग्गंथाणं पसत्थं ?
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