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भगवती सूत्र-श. १ उ. ९ स्थविरों से कालास्यवेषि के प्रश्नोत्तर
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न करो।
कहा कि-हे आर्य ! हम जैसा कहते हैं वैसी ही श्रद्धा रखो, प्रतीति रखो, रुचि रखो।
तब कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार किया। तत्पश्चात् वे इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! मैंने पहले चार महाव्रत वाला धर्म स्वीकार कर रखा है, अब मैं आपके पास प्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत वाला धर्म स्वीकार करके विचरने की इच्छा करता हूँ। .. तब स्थविर भगवन्त बोले-हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख हो वैसे करो, विलम्ब न करो। .. विवेचन-स्थविर भगवन्तों के उत्तर से कालास्यवेषिपुत्र अनगार को बोध हो गया। यह विशिष्ट बोध प्राप्त होने से उन्होंने स्थविर भगवान् को भक्तिभाव पूर्वक वन्दन नमस्कार किया और निवेदन किया कि-आपने इन पदों का जो अर्थ बतलाया, वह मैंने पहले नहीं जाना था। यह अर्थ मैंने पहले नहीं सुना था। इसी प्रकार मैंने इन पदों का अर्थ आपसे व्याकरण पूर्वक, स्वपक्ष विपक्ष पूर्वक, उद्धरण पूर्वक और विशेष अर्थ पूर्वक सुना है। मैं आपके बताये अर्थों की श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, आपके बताये अर्थों में मेरी रुचि हुई है । आपने कहा वह सत्य है । इसलिए अब मैं आपकी आज्ञा में विचरण करना चाहता हैं। भगवान पार्श्वनाथ के शासन में चतूर्याम (चार महाव्रत वाला) धर्म था। अर्थात् सर्वथा प्रकार से प्राणातिपात का त्याग, मृषावाद का त्याग, अदत्तादान का त्याग और बहिद्धादान का त्याग होता था। 'बहिद्धादान' में मैथुन और परिग्रह का समावेश कर लिया गया है । भगवान् महावीर के शासन में इसी चतुर्याम को पंचयाम रूप से कहा है अर्थात् मैथुन विरमणव्रत और परिग्रह विरमणव्रत, इस तरह अलग अलग कथन किया है । चतुर्याम धर्म और पंचयाम धर्म में तात्त्विक दृष्टि से कुछ भी अन्तर नहीं है । संक्षेप और विस्तार का ही भेद
· कालास्यवेषिपुत्र अनगार की बात सुन कर स्थविर भगवान् ने कहा कि-हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो।
तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते वंदइ, नम सह, वैदिचा, नमंसित्ता चाउज्बामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं
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