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भगवती सूत्र - श. १ उ. ७ गर्भगत जीव के अंगादि
किये हुए रस-विकारों का एक भाग ओज के साथ ग्रहण करता है । गर्भगत जीव के मल, मूत्र, कफ, नाक का मैल, वमन, पित्त नहीं होते हैं, किन्तु वह उस आहार को श्रोत्रेन्द्रिय आदि रूप से परिणमाता है । वह कवलाहार नहीं करता, किन्तु सर्वात्म रूप से आहार करता है । एक 'मातृजीव-रसहरणी' नाड़ी होती है । रसहरणी का अर्थ है - नाभिका नाल । इस नाल द्वारा माता के जीव का रस ग्रहण किया जाता है । यह नाड़ी, माता के जीव के साथ प्रतिबद्ध (गाढ़ रूप से बद्ध ) होती है और पुत्र के जीव के साथ मात्र स्पृष्ट होती है । दूसरी एक नाड़ी और है जिसे 'पुत्रजीवरसहरणी' नाड़ी कहते हैं । यह पुत्र के जीव के साथ प्रतिबद्ध (गाढ़ रूप से बद्ध ) होती है और माता के जीव के साथ स्पृष्ट होती है । इस नाड़ी द्वारा पुत्र का जीव आहार का चय, उपचय करता है। इससे गर्भस्थ जीव पुष्टि प्राप्त करता है ।
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गर्भगत जीव के अंगादि
२५१ प्रश्न – कइ णं भंते ! माझ्यंगा पण्णत्ता ?
२५१ उत्तर - गोयमा ! तओ माइयंगा पण्णत्ता । तं जहा:मंसे, सोणिए, मत्थुलुंगे ।
२५२ प्रश्न – कइ णं भंते ! पिइयंगा पण्णत्ता ?
२५२ उत्तर - गोयमा ! तओ पिहयंगा पण्णत्ता । तं जहा:अट्ठि, अट्ठिमिंजा, केस-मंसु - रोम - नहे ।
२५३ प्रश्न - अम्मापिइए णं भंते ! सरीरए केवइयं कालं संचिgs ?
२५३ उत्तर - गोयमा ! जावइयं से कालं भवधारणिज्जे सरीरए अव्वावने भवइ एवतियं कालं संचिट्ठह । अहे र्ण समए, समए,
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