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भगवती सूत्र - श. १ उ. ८ मृगघातकादि को लगने वाली क्रिमा
२७१ उत्तर - हे गौतम ! यह निश्चित है कि 'कज्जमाणे कडे' अर्थात् जो किया जा रहा है वह "किया हुआ' कहलाता है। जो साधा जा रहा है वह 'साधा हुआ' कहलाता है । जो मोड़ा जा रहा है वह 'मुड़ा हुआ' कहलाता है और जो फेंका जा रहा है वह 'फेंका हुआ' कहलाता है ?
हाँ, भगवन् ! जो किया जा रहा है वह किया हुआ कहलाता है और यावत् जो फेंका जा रहा है. वह फेंका हुआ कहलाता है ।
इसलिए हे गौतम! इसी कारण से जो मृग को मारता है वह मृग के बेर से स्पृष्ट कहलाता है और यदि मरने वाला छह मास के भीतर मरे, तो मारने वाला कायिकी आदि यावत् पांच क्रियाओं से स्पृष्ट कहलाता है और यदि मरने वाला छह मास के बाद मरे, तो मारने वाला पुरुष कायिकी यावत् पारितापनिकी, इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट कहलाता हैं ।
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बिबेचन -मृग को मारने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा कर तैयार लड़े हुए पुरुष का मस्तक किसी ने पीछे से आकर काट दिया और उस मारने वाले के धनुष से छूटे हुए बाण से मृग मर गया, तो जिसके बाण से मृग मरा वह मृग घातक है और जिसने मनुष्य को मारा है वह मनुष्य - घातक है, क्योंकि 'चलमाणे चलिए, कज्जमाने कडे यह सिद्धांत सर्वत्र लागू होता है ।
जिस पुरुष का बाण मृगादि को लगा है, यदि वह मृगादि छह मास के अन्दर मर जाय, तो उसके मरण में वह प्रहार निमित्त माना जाता है । अतः उस पुरुष को प्राणातिपातिकी तक पाँचों क्रियाएँ लगती है । यदि वह मृगादि छह मास के बाद मरता है, तो उसके मरण में वह प्रहार निमित्त 'नहीं माना जाता है, इसलिए उसको प्राणातिपातिकी क्रिया नहीं लगती है, किन्तु पारितापनिकी तक चार क्रियाएं ही लगती है। यह व्यवहारनय से कथन किया गया है, अन्यथा उस प्रहार के निमित्त से जब कभी भी मरण हो, तो उसे पांचों क्रियाएँ लगती है ।
२७२ प्रश्न- पुरिसे णं भंते ! पुरिसं सत्तीए समभिर्भसेज्जा, सयपाणिमा वा से असिणा सीसं छिंदेजा तओ गं भते ! से पुरिसे
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