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भगवती सूत्र - श. १ उ. ८ बाल पंडितादि का आयुबन्ध
विशेषण लगाया है, इमसे 'मिथ्यादृष्टि' और अविरत जीव का ही ग्रहण किया गया है, 'मिश्र दृष्टि' का नहीं ।
गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम ! 'बाल' जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों गतियों में जाता है ।
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यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि 'एकान्तबाल' जीवों का एकान्तबालकपन ( मिथ्यात्व) तो सरीखा है । फिर वह चारों गति का आयुष्य बांधता है । इसका क्या कारण है ? समाधान- इस शंका का समाधान यह कि आयुष्य बन्ध के कारण अलग अलग हैं । इसलिए एकान्तबालजीव भी उन उन कारणों से अलग अलग आयुष्य बांधते हैं । जो एकान्त बाल ( मिथ्यादृष्टि ) जीव महाआरम्भ, महापरिग्रहादि वाले होते हैं तथा असत्य मार्ग का उपदेश देकर लोगों को कुमार्ग में प्रवृत्त करते हैं और उसी प्रकार के दूसरे पापमय कार्य करते हैं, वे नरक अथवा तिर्यञ्च का आयुष्य बाँधते हैं। जो एकान्त बाल जीव अल्प कषायी होते हैं, अकाम निर्जरा आदि करते हैं, वे मनुष्य अथवा देव का ही आयुष्य बाँध हैं । 'एकान्तबाल' शब्द समान होते हुए भी अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य तो देवायु ही बाँधता है ।
एकान्त पण्डित जीव साधु ही होते हैं । उनके सम्यक्त्व सप्तक (अनन्तानुबन्धी चार कषाय और दर्शन मोहनीय त्रिक, ये सात प्रकृतियाँ) के क्षय हो जाने के पश्चात् चे आयुष्य का बन्ध नहीं करते, अपितु उसी भर्व में मोक्ष चले जाते हैं । यदि उपर्युक्त सात प्रकृतियों के क्षय होने से पहले इनके क्षायोपशम में आयुष्य बन्ध हो, तो सिर्फ एक वैमानिक देव का ही होता है । इसीलिए पण्डित पुरुष के लिए कहा गया है कि वह कदाचित् आयुष्य - का बन्ध करता है और कदाचित् नहीं करता है ।
वस्तु तत्त्व का यथार्थ स्वरूप समझ कर जो आंशिक रूप से पापों का प्रत्याख्यान करता है और जितने अंश में त्याग नहीं कर सका है, उसके लिए अपनी कमजोरी स्वीकार करता है, वह 'बाल - पण्डित' कहलाता है। वह देशविरत श्रमणोपासक श्रावक भी कहलाता है । वह देवायु का ही बन्ध करता है। नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य का आयुष्य नहीं बांधता है, क्योंकि वह शुद्ध संयम के पालक श्रमण-माहन के पास धार्मिक वचन सुनकर एक देशतः आरम्भ परिग्रहादि का त्याग कर देता है । उस सम्यक्त्व और त्याग के प्रताप से वह जीव तीन गतियों से बच जाता है और सिर्फ देवगति का ही आयुष्य बांधता 1.
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