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भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय कर्म
जो कर्म पहले उपार्जन किये हुए हैं उनमें प्रदेश और अनुभाग की वृद्धि करना 'चय' कहलाता है । बारबार चय करना 'उपचय' कहलाता है।
अन्य आचार्यों का अभिप्राय ऐसा है कि-कर्मपुद्गलों को ग्रहण करना 'चय'. कहलाता है और अबाधाकाल को छोड़ कर दूसरे काल में ग्रहण किए हुए कर्मपुद्गलों को वेदने के लिए निषेचन करना 'उपचय' कहलाता है। ...
अबाधाकाल-कर्मबन्ध होने के पश्चात् और उदय से पहले का समय जब कि कर्म . सत्ता में पड़ा रहता है और फल नहीं देता, उस काल को 'अबाधाकाल' कहते हैं । कर्म की स्थिति जितने कोड़ाकोड़ी सागर की होती है उतने ही सौ वर्ष का अबाधाकाल, उत्कृष्ट अबाधाकाल माना गया है। .
निषेचन का अर्थ है-वर्गीकरण । जीव पहली स्थिति में बहुत से कर्म दलिकों का निषेचन करता है । उसके पश्चात् दूसरी स्थिति में बहुत कम कर्म दलिकों का निषेचन करता है । इस प्रकार यावत् उत्कृष्ट स्थिति में बहुत कम का निषेचन करता है । कहा भी है
___ मोत्तूण सगमबाहं, पढमाइ ठिईई बहुयरं वव्वं ।
सेसं विसेसहीणं जाव उक्कोसं ति सव्वासं ॥, अर्थात्-अपना अबाधाकाल छोड़कर प्रथम स्थिति में बहुतर द्रव्य को और इसी प्रकार यावत् उत्कृष्ट स्थिति में बहुत कम द्रव्य का निषेचन करता है ।
जो कर्म उदय में नहीं आये हैं उन्हें एक प्रकार के विशिष्ट करण द्वारा उदय में ले आना 'उदीरणा' है । और उदय में आये हुए कर्मों के फल को भोगना 'वेदना' कहलाता है । जीव प्रदेशों से कर्म का पृथक् हो जाना 'निर्जरा' है। स्थिति के परिपक्व होने पर कर्म आत्मप्रदेशों से पृथक् होते हैं-वह निर्जरा है।
___संग्रह गाथा में बताया गया है. कि पहले के तीन पदों में चार चार भेद और पीछे के तीन पदों में तीन तीन भेद करना चाहिए । इसका कारण यह है कि-कृत, चितं और उपचित कर्म बहुत समय तक-सत्तर कोडाकोडी सागरोपम तक ठहर सकते हैं। इसलिए इन तीन पदों में तीन काल बतलाने के साथ ही साथ सत्ता रूप काल बतलाने के लिए सामान्य क्रिया का भी प्रयोग किया जाता है । उदीरणा आदि बहुतकाल तक नहीं रहते हैं, इस लिए इनमें सामान्य क्रिया नहीं बतलाई गई है, किन्तु सिर्फ तीन काल ही बतलाये गये हैं। इसी कारण से पहले के तीन पदों के चार चार और पिछले तीन पदों के तीन तीन भेद किये गये हैं। .
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