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भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ नैरयिकादि के कांक्षा - मोहनीय
विचिकित्सा वाले, भेदसमापन और कलुषसमापन होकर इस प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते हैं ।
१४५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वही सत्य और असंदिग्ध जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया है ?
१४५ उत्तर - हां, गौतम ! वही सत्य है, असंदिग्ध है, जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया है । यावत् पुरुषकार पराक्रम से निर्जरा होती है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यही सत्य है ।
विवेचन - अब चौबीस दण्डक की अपेक्षा से वेदना से लगाकर निर्जरा तक का विचार किया जाता है ।
गौतम स्वामी ने पूछा कि हे भगवन् ! क्या नारकी जीव भी कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते हैं ? भगवान् ने फरमाया कि- हाँ, गोतम ! वेदते हैं। सामान्य जीवों के सम्बन्ध 'जो बातें कही गई हैं वे सब बातें यहाँ भी लागू होती है। ये ही सब बातें स्तनितकुमारों तक भी समझ लेनी चाहिए ।
इसके पश्चात् गौतमस्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकाय के जीव भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? भगवान् ने फरमाया- हाँ, गौतम ! वे भी वेदन करते है ।
जिन्हें मनोलब्धि प्राप्त है वे जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करें, यह तो ठीक है, किन्तु जिनमें मनोज्ञान नहीं है, जिन्हें भले बुरे की पहचान नहीं है, वे कांक्षामोहनीय कर्स को किस प्रकार वेदते हैं ? इसी अभिप्राय से गौतमस्वामी ने फिर प्रश्न किया किहे भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार वेदते हैं ? भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम! 'हम कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं इस प्रकार उन जीवों में तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन नहीं है, फिर भी वे वेदते हैं ।
तर्क अर्थात् विमर्श । 'यह इस प्रकार होगा' इस तरह के विचार को 'तर्क' कहते हैं । संज्ञा अर्थात् अर्थावग्रह रूप ज्ञान । अवग्रह के दो भेद हैं-अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह । प्रज्ञा का अर्थ है - बुद्धि । सब विशेष सम्बन्धी ज्ञान को प्रज्ञा कहते हैं । स्मरणादि रूप मतिज्ञान के भेद को मन कहते हैं। अपने अभिप्राय को शब्द द्वारा प्रकट करना 'वचन' कहलाता है ।
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