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भगवती सूत्र - श. उ. ६ आर्य रोह के प्रश्न
२२१ उत्तर - हे रोह ! जैसे लोकान्त के साथ सभी स्थानों का संयोग किया, उसी प्रकार इस सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। और इसी प्रकार इन स्थानों को अलोकान्त के साथ भी जोड़ना चाहिए ।
२२२ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पहले सातवाँ अवकाशान्तर हैं और पीछे सातवां तनुवात है ?
२२२ उत्तर - हे रोह ! इसी प्रकार सातवें अवकाशान्तर को पूर्वोक्त सब के साथ जोड़ना चाहिए। इसी प्रकार सर्वाद्धा तक समझना चाहिए । २२३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पहले सातवां तनुवात है ? और पीछे सातवाँ घनवात है ?
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२२३ उत्तर - हे रोह ! यह भी उसी प्रकार जानना चाहिए, यावत् सर्वाद्धा तक । इस प्रकार एक एक का संयोग करते हुए और जो जो नीचे का हो उसे छोड़ते हुए पूर्ववत् समझना चाहिए। यावत् अतीत और अनागतकाल और फिर सर्वाद्धा, यावत् हे रोह ! इनमें कोई क्रम नहीं है ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर रोह अनगार तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।
विवेचन - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के 'रोह' नाम के एक शिष्य थे । वे प्रकृति से भद्र अर्थात् स्वाभाविक रूप से ही वे परोपकार करने के स्वभाव वाले थे । वे प्रकृति - स्वभाव से ही मृदु अर्थात् कोमल थे । इसीलिए वे प्रकृति से विनीत थे । प्रकृति भद्रता और मृदुता कारण है और 'विनय' उनका कार्य है । वे प्रकृति से ही उपशान्त थे अर्थात् उन्हें क्रोध का उदय नहीं होता था । यदि कदाचित् क्रोधादि कषाय का उदय हो भी जाय, तो भी उनका परिणाम (फल) न होने से उनके क्रोधादि कषाय पतले थे । वे मृदु . मार्दव सम्पन्न थे अर्थात् गुरु के उपदेश से उन्होंने अहंकार पर विजय प्राप्त किया था। वे निरभिमानी थे । वे अलीन थे अर्थात् वे गुरु के आश्रय में रहने वाले थे एवं गुप्तेन्द्रिय थे । वे भद्र थे अर्थात् किसी को संताप उपजाने वाले नहीं थे । वे विनीत थे अर्थात् गुरु सेवा के गुण से विनयवान् थे । इस प्रकार के गुणों से युक्त रोह अनगार भगवान् से न बहुत दूर और न बहुत नजदीक गोदुहासन से बैठे हुए थे, उनके दोनों घुटने ऊपर और सिर नीचे की ओर था। इस प्रकार उत्कुटुकासन से बैठे हुए रोह अनगार ध्यान के कोठे में तल्लीन
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