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भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भ विचार
तरह एकेन्द्रिय जीवों के विषय में भी समझना चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रिय जीव भी (वनस्पति की अपेक्षा) अनन्त हैं ।
सामान्य जीवों की अपेक्षा नारक जीव थोड़े हैं। अतः उनमें तीन भंग पाये जाते हैं। १ कभी उनमें विग्रह गति वाला एक भी जीव नहीं पाया जाता है, सभी अविग्रह गति समापन्न होते हैं । २ अथवा कभी कोई एक विग्रह गति समापन होता है और बहुत जीव अविग्रह गति समापन्न होते है । ३ अथवा कभी बहुत जीव विग्रह गति समापन्न और बहुत जीव अविग्रह गति समापन्न होते हैं । नारकियों की तरह सभी दण्डकों में ये तीन भंग पाये जाते हैं, किन्तु एकेन्द्रियों में और जीव सामान्य में य तीन भंग नहीं पाये जाते हैं। '
गति का प्रकरण होने से च्यवन सूत्र कहा गया है-विमान और परिवार की अपेक्षा महाऋद्धि वाला, शरीर और आभूषणों की अपेक्षा महाकान्ति वाला, महाबलशाली, महायशस्वी, महा सूख वाला, अनेक प्रकार का रूप करने की शक्ति वाला कोई देव, जब देवायु समाप्त होने से च्यवने वाला होता है, तब वह अपने उत्पत्ति स्थान (स्त्री अथवा तिर्यञ्चिनी के गर्भाशय) को देखकर लज्जित होता है, क्योंकि वह स्थान, देवस्थान की अपेक्षा हीन . और अशुचिमय अपवित्र होता है । अपने उत्पत्ति स्थान में रज और वीर्य रूप गन्दगी को देखकर घृणा उत्पन्न होती है । उसे अरति रूप परीषह (बेचैनी) उत्पन्न होता है, इसलिए वह कुछ समय तक आहार भी नहीं करता है । तदनन्तर आहारादि करता है । देवायु समाप्त होने पर वह मनुष्यगति में अथवा तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होता है । क्योंकि देव मरकर मनुष्यगति अथवा तिर्यञ्चगति में उत्पन्न होता है, किन्तु देवति या नरकगति में उत्पन्न नहीं होता है।
गर्भ विचार .
२४१ प्रश्न-जीवे णं भंते ! गम्भं वक्कममाणे किं सइंदिए वक्कमइ, अणिंदिए वक्कमइ ?
२४१ उत्तर-गोयमा ! सिय- सइंदिए वक्कमइ, सिय अणिदिए - वक्कमइ।
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