________________
भगवती सूत्र-श. १ उ. ७. विग्रहगति
-
२९५
बाद (मृत्यु के बाद) तिर्यञ्च का आय अथवा मनुष्य का आयु समझना चाहिए।
विवेचन-गौतम स्वामी पूछते हैं कि-हे भगवन् ! जीव विग्रह गति वाला होता है या अविग्रह गति वाला होता है ? भगवन् ने फरमाया कि-हे गौतम! जीव विग्रह गति वाला भी होता है और अविग्रह गति वाला भी होता है । अर्थात् जीव में दोनों प्रकार की अवस्थाएँ हो सकती हैं।
. विग्रह का अर्थ है-मोड़खाना-मुड़ना। जीव जब एक शरीर छोड़ कर दूसरा नया शरीर धारण करने के लिए गति करता है, तो उसकी गति दो प्रकार की हो सकती है । कोई एक जीव, एक आदि बार मुड़ कर उत्पत्ति स्थान पर पहुंचता है और कोई जीव बिना मुड. सीधा ही अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुंच जाता है । जब उत्पत्ति स्थान पर जाने के लिए मोड़ खाना पडता है तब वह गति 'विग्रह गति' कहलाती है। जब जीव बिना मुड़े, सीधा ही चला जाता है तब उस गति को 'अविग्रह गति' कहते हैं तथा जब जीव ठहरा हुआ हो, गति नहीं कर रहा हो, तब भी उसे अविग्रह गति वाला समझना चाहिए। अविग्रह गति के ये दोनों अर्थ यहां विवक्षित हैं. ऐमा टीकाकार कहते हैं । यद्यपि प्राचीन टीकाकार ने अविग्रह गति का अर्थ सिर्फ सीधी (बिना मोड़ वाली) गति ही लिया है, किन्तु सिर्फ ऐसा अर्थ लेने से और अविग्रह का अर्थ 'ठहरा हुआ' न करने से नारकी जीवों में अविग्रह गति वालों की जो बहुलता बतलाई है, वह संगत नहीं बैठ सकेगी। इसलिए 'अविग्रह गति' का अर्थ यहां पर सीधी गति' और 'गति न करता हुआ-ठहरा हुआ' ये दोनों अर्थ लेना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि-एक गति का आयुष्य समाप्त होने पर दूसरी गति. में जाते समय मार्ग में जो गति होती है (वाटे बहता) उसे विग्रह गति कहते हैं । जो मार्ग में नहीं चल रहा है) वाटे नहीं बहता हुआ) किन्तु किसी भी गति में स्थित है, उसे 'अविग्रह गति कहते हैं । एक अर्थ यह है । दूसरा अर्थ यह है-मोड़ वाली गति को विग्रह गति कहते हैं। बिना मोड़ वाली-सीधी गति को तथा 'ठहरा रहने' को अविग्रह गति कहते हैं। :
_____एक जीव की अपेक्षा वह कभी विग्रह गति समापन्न होता है और कभी अविग्रह गति समापन्न होता है। ...
बहुत जीवों की अपेक्षा बहुत जीव विग्रह गति समापन भी हैं और बहुत जीव अविग्रह गति समापन्न भी हैं । क्योंकि जीव अनन्त हैं, इसलिए प्रति समय बहुत जीव विग्रह गति वाले भी होते हैं और बहुत जीव अविग्रह गति वाले भी होते हैं । जीव सामान्य की
• यह अर्थ भगवती सूत्र शतक १४ उद्देशक ५ के मूल पाठ और टाका से स्पष्ट होता है और यहाँ पर यही अर्थ करना उचित है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org