________________
२५२
भगवती
सूत्र----
---- श. १ उ. ५ बेइन्द्रियादि के स्थिति आदि
होती और तत्सम्बन्धी अस्सी भंग भी नहीं होते हैं । वायुकाय के चार शरीर होते हैंऔदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण ।
वनस्पतिका का वर्णन पृथ्वीकाय के समान कहना चाहिए। ये दस ही द्वारों में अभंगक हैं । इनमें देव आकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए तेजोलेश्या पाई जाती है और तत्सम्बन्धी अस्सी भंग भी पायें जाते हैं ।
यहां यह शंका की जा सकती है कि कर्मग्रन्थ के मतानुसार पृथ्वीकाय, अटकाय और वनस्पतिकाय, इन तीनों में 'सास्वादन सम्यक्त्व' माना गया है । जब इनमें सास्वादन सम्यक्त्व माना गया है, और इसके साथ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी माना गया है; तब इनमें सम्यग्दृष्टि, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में अस्सी भंग भी होंगे, उनका कथन यहां पर नहीं किया गया है ?
समाधान - उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि पृथ्वीकायादि स्थावरकाय में सास्वादन सम्यक्त्व नहीं होता है। इसलिए यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया गया है। कहा भी है
उभयाभावो पुढवाइए । विगलेसु होज्ज उबवण्णोति ॥
अर्थात् - पृथ्वीकायादि तीन में उभयाभाव होता है अर्थात् प्रतिपद्यमान और पूर्व प्रतिपन्न, इस दोनों सम्यक्त्व का अभाव होता है । विकलेन्द्रियों में पूर्वोपपन्नक होते हैं । तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकायादि में रहा हुआ कोई भी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता और पूर्व प्राप्त सम्यक्त्व को साथ लेकर भी कोई जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होता । विकलेन्द्रियों में रहा हुआ जीव, पूर्व प्राप्त : सम्यक्त्व को साथ लेकर आता है, इसलिए वह पूर्वोपपन्नक कहलाता है +
Jain Education International
बेन्द्रियादि के स्थिति आदि
१९३ - बेइन्दिय -तेइंदिय - चउरिंदियाणं जेहिं ठाणेहिं नेरह
+ यद्यपि टीकाकार ने यह बात कही है कि 'पृथ्वीकायिकादि में सास्वादन सम्यक्त्व आदि अत्यन्त स्वल्प समय होता है, किन्तु यह बात शास्त्र संगत नहीं है। जैसाकि - 'उभयाभावो पुढवाइएसु' गाथा से स्पष्ट हैं । और मूलपाठ तथा श. २४ उ. १२ और प्रज्ञापनादि के मूल पाठ से भी यही सिद्ध होता है । अतएव पृथ्व्यादि स्थावरकाय में सास्थादन सम्यक्त्व मानना उचित नहीं है।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org