________________
भगवती सूत्र - श. १. उ ५ बेइन्द्रियादि के स्थिति आदि
याणं असीहभंगा तेहिं ठाणेहिं असीइं चेव । नवरं अब्भहिया सम्मत्ते, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे य एएहिं असीहभंगा । जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सव्वेसु अभंगयं ।
विशेष शब्दों के - अमहिया - अधिक ।
भावार्थ - १९३ - जिन स्थानों में नैरयिक जीवों के अस्सी भंग कहे गये 'हैं, उन स्थानों में बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं । विशेषता यह है कि सम्यक्त्व, आभिनिबोधिक ज्ञान ( मतिज्ञान) और श्रुतज्ञान, इन तीन स्थानों में भी बेइन्द्रियादि जीवों के अस्सी भंग होते हैं, यह बात नैरयिक जीवों से अधिक है । तथा जिन स्थानों में नारकी जीवों में सत्तांईस भंग कहे गये हैं, उन सभी स्थानों में यहाँ अभंगक है अर्थात् कोई भंग नहीं होते हैं ।
२५३
विवेचन - नारकी जीवों के प्रकरण में संख्यात समय अधिक तक जघन्य स्थिति में, जघन्य अवगाहना में, संख्यात प्रदेश अधिक तक जघन्य अवगाहना में और मिश्रदृष्टि में अस्सी गंग कहे हैं । यहाँ विकलेन्द्रियों (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चोइन्द्रिय जीवों) के सम्बन्ध में भी इन स्थानों में अस्सी भंग ही समझना चाहिये, क्योंकि विकलेन्द्रिय जीवों में भी इन स्थानों में जीव अल्प होते हैं, अतएव उनमें एक एक जीव भी कदाचित् क्रोधादि उपयुक्त हो सकता है । मिश्रदृष्टि वालों के अस्सी भंग यहाँ नहीं कहना चाहिए, इसका कारण यह है कि विकलेन्द्रियों में मिश्रदृष्टि जीव नहीं होते ।
दृष्टिद्वार और ज्ञानद्वार में नारकी जीवों के सत्ताईस भंग कहे गये हैं, किन्तु यहाँ अधिक अर्थात् अस्सी भंग कहना चाहिए। क्योंकि बहुत थोड़े विकलेन्द्रियों को सास्वादन . सम्यक्त्व होता है और बहुत थोड़े होने के कारण एकत्व सम्भव है । इस प्रकार एकत्व संभव होने के कारण अस्सी भंग कहे गये है । यही बात आभिनिबोधिक ज्ञान ( मतिज्ञान ) और श्रुतज्ञान के लिए भी समझना चाहिए, इनमें भी अस्सी भंग कहना चाहिए ।
नारकी जीवों के सम्बन्ध में जिन जिन स्थानों में सत्ताईस भंग बतलाये गये हैं, उन उन स्थानों में विकलेन्द्रियों के सम्बन्ध में अभंगक अर्थात् भंगों का अभाव कहना चाहिए । अभंगक कहने का कारण यह है कि विकलेन्द्रिय जीवों में क्रोधादि उपयुक्त जीव एक साथ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org