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भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ क्रिया विचार
। २६७
जाती है ?
२११ उत्तर-हाँ, गौतम ! की जाती है।
२१२. प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिकों द्वारा जो क्रिया की जाती है, क्या वह स्पृष्ट है ? या अस्पृष्ट है ? - २१२ उत्तर-हे गौतम ! वह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छहों दिशाओं में की जाती है।
२१३ प्रश्न-हे भगवन् ! जो क्रिया की जाती है, क्या वह कृत है ? या अकृत है ? .. २१३ उत्तर-हे गौतम ! वह पहले की तरह जानना चाहिये यावत् वह अनुक्रमपूर्वक कृत है, किन्तु अननुक्रमपूर्वक कृत नहीं हैं । ऐसा कहना चाहिए।
२१४-नरयिकों के समान एकेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक सब दण्डकों में कहना चाहिए । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए। ... २१५-प्राणातिपात के समान मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य तक अठारह ही पापों के विषय में कहना चाहिए। इस तरह अठारह पापस्थानों का कथन चौवीस ही दण्डकों में कहना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर भगवान् गौतम, श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके यावत् विचरते हैं।
विवेचन-स्पर्शना का अधिकार चल रहा है, इसलिए अब प्राणातिपात आदि पापस्थानकों से उत्पन्न होने वाली कर्म सम्बन्धी स्पर्शना के विषय में कहा जाता है।
क्रिया शब्द का अर्थ इस प्रकार है-'क्रियते इति क्रिया-कर्म' । जो की जाय उसे क्रिया कहते हैं और क्रिया को 'कर्म' कहते हैं । यह क्रिया (कर्म) 'कृत' (की हुई) होती हैं किन्तु 'अकृत' (बिना की हुई) नहीं होती है । वह भी आत्मकृत होती है, किन्तु परकृत और तदुभयकृत नहीं होती है । वह भी आनुपूर्वीकृत होती है, किन्तु अनानुपूर्वीकृत नहीं होती है।
अनुक्रम से गिनना आनुपूर्वी कहलाती है, जैसे कि-एक, दो, तीन, चार, पाँच इत्यादि ।
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