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भगवती सूत्र-शः १ उ. ५ नरयिकों की लेश्या दृष्टि आदि
विभंग (विपरीत अवधि) ज्ञान होता है, इसलिए वे तीन अज्ञान वाले होते हैं । जो असंज्ञी जीवों में से आकर नरक में उत्पन्न होते हैं उनको जन्मते समय दो अज्ञान (मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान) होते हैं और एक अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है, अब उन्हें तीन अज्ञान हो जाते हैं । इसीलिए तीन अज्ञान "भजनापूर्वक' कहे गये हैं। किसी समय उनमें दो अज्ञान होते हैं और किसी समय उनमें तीन अज्ञान होते हैं । जैसा कि निम्न लिखित दो गाथाओं में कहा है. . सण्णी रइएसु उरलपरिच्चायणतरे समये। . . . . . .
विन्मंग ओहि वा अविग्गहे विग्गहे लहइ ॥१॥ असण्णी गरएसु पज्जत्तो जेण लहइ विग्मंग।
नाणा तिग्णेवं तओ अण्णाणा दोण्णि तिग्णेव ॥२॥ अर्थ-औदारिक शरीर को छोड़कर जो संज्ञी जीव नरक में उत्पन्न होते हैं, वे तत्काल अविग्रह गति में अथवा विग्रह गति में विभंगज्ञान अथवा अवधिज्ञान को प्राप्त करते हैं। .
यहाँ से जो असंज्ञी जीव मर कर नरक में उत्पन्न होते हैं वे पर्याप्त अवस्था को प्राप्त होने के पश्चात् विभंग ज्ञान को प्राप्त होते हैं । इसलिए नरक में ज्ञान तो नियम पूर्वक तीन ही होते हैं और अज्ञान दो भी होते हैं और तीन भी होते हैं।
पहले के तीन ज्ञान और तीन अज्ञान में सत्ताईस भंग पाये जाते हैं। यहां मूलपाठ में आभिनिबोधिक ज्ञान अलग कह कर फिर 'एवं तिण्णि णाणाइं तिण्णि अण्णाणाई' ऐसा कहा है । सो यहाँ दो कहना चाहिए, किन्तु जो 'तीन' कहा है, इसका कारण यह है कि आभिनिबोधिक सहित तीन ज्ञान और तीन अज्ञान लिये गये हैं।
जहाँ तीन अज्ञान का कथन किया गया है वहाँ विभंग ज्ञान होने से पहले जो मतिअज्ञान श्रुतअज्ञान होते हैं, उस समय अस्सी भंग होते हैं, क्योंकि दो अज्ञान वाले जीव थोड़े होते हैं । किन्तु ये दो अज्ञान वाले जीव जघन्य अवगाहना वाले होते हैं, इसलिए उनमें जघन्य अवगाहना की अपेक्षा ही अस्सी भंग लिये गये हैं।
____ अब योग द्वार के विषय में कहा जाता है । यहाँ यद्यपि अकेले 'कार्मण काययोग' में अस्सी भंग संभव है तथापि यहाँ पर उसकी विवक्षा नहीं की है, किन्तु सामान्य काययोग की विवक्षा की गई है, इसलिए सत्ताईस भंग कहे गये हैं।
- उपयोगद्वार के विषय में कहा जाता है-उपयोग के दो भेद हैं-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । विशेष ग्रहण करने की शक्ति को 'आकार' कहते हैं। उस 'आकार'
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