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भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ छद्मस्थादि की मुक्ति
ब्रह्मचर्यवास और प्रवचन-माता (पांच समिति और तीन गुप्ति) इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है।
'उपशान्त-मोहनीय' नामक ग्यारहवें गुणस्थान में संयमादि सब विशुद्ध होते हैं और विशुद्ध संयमादि ही मुक्ति के साधन हैं । वह विशुद्ध संयमादि उपशान्त मोह वाले में मौजूद है और वह छद्मस्थ है, तो क्या वह उसी गुणस्थान से मोक्ष प्राप्त कर लेता है ? इसी प्रकार बारहवें 'क्षीण-मोहनीय' गुणस्थान में विशुद्ध संयमादि हैं, किन्तु उस गुणस्थान वाला मनुष्य छमस्थ है, तो क्या वह उसी गुणस्थान से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ?
___ 'अन्तकर' शब्द का अर्थ है-भव का नाश करने वाला । लम्बे समय में जन्मान्तर में भव का नाश करने वाला 'अन्तकर' कहलाता है, किन्तु यहां उसका ग्रहण नहीं करना चाहिये । इसके साथ दूसरा विशेषण दिया है-'अंतिम सरीरिया, जिसका अर्थ है'अन्तिमशरीरी-चरमशरीरी' अर्थात् जिनका वर्तमान शरीर ही अन्तिम शरीर है, वर्तमान शरीर को छोड़ने के बाद फिर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं करेंगे। ..
__ भगवान् ने फरमाया कि छद्मस्थ मनुष्य सिद्ध नहीं होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त नहीं करता है, नहीं करेगा और नहीं किया है। क्योंकि जितने मनुष्य संसार का अर्थात् जन्म मरण रूप सब दुःखों का अन्त करने वाले हुए हैं, वे सब चरमशरीरी ही थे, वे सब उत्पन्न ज्ञान दर्शन को धारण करने वाले अर्हन्त जिन, केवली होकर ही सिद्ध, बुद्ध, और मुक्त हुए हैं, होते हैं और होंगे। जिन्हें अनादि सिद्ध ज्ञान नहीं, किन्तु जो उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले हैं, उन्हें 'उत्पन्न ज्ञान दर्शनधर' कहते हैं । इस विशेषण से 'अनादि मुक्तात्मा' मानने वाले मत का निराकरण किया गया है।
जो इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य हो-उसे 'अर्हन्त' कहते हैं । जिसने रागद्वेष आदि आत्मिक विकारों पर विजय प्राप्त करली हो - वह वीतराग पुरुष 'जिन' कहलाता है।
भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! छमस्थ मोक्ष नहीं गये, न जाते हैं और न जावेंगे, किन्तु जो उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक, अर्हन्त जिन केवली होते हैं, वे ही मोक्ष गये हैं, जाते हैं और जायेंगे।
छप्रस्थ के विषय में प्रश्न करने के पश्चात् गौतम स्वामी ने अवधिज्ञानी के विषय में प्रश्न किया है । अवधि का अर्थ है-मर्यादा । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा के अनुसार उत्पन्न होने वाले और मन तथा इन्द्रियों की सहायता के बिना ही रूपी पदार्थों को
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