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भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ श्रमणों के कांक्षा-मोहनीयः ।
नहीं कर सकता, तब क्या करना चाहिए ? तब विवादग्रस्त बात के लिए इस प्रकार विचार करना चाहिए कि-आचार्यों का यह मतभेद सम्प्रदायादि के दोष से है, परन्तु जिनेन्द्र भगवान् का मत तो एक है और वह परस्पर अविरुद्ध है । क्योंकि वे रागादि रहित है । कहा है कि
अगुवकय पराणुग्गह परायणा जं जिना जुगप्पवरा।
जियरागदोसमोहा य गन्हा वाइगो ते॥ अर्थ-जिन जीवों ने अपने पर किसी प्रकार का उपकार नहीं किया है, उन प्राणियों पर भी उपकार और अनुग्रह करने वाले जिनेन्द्र भगवान् राग द्वेष और मोह को जीते हुए होते हैं, इसलिए वे अन्यथावचन-मूठवचन नहीं कहते हैं। "नान्यथावादिनो जिनाः"जिनेन्द्र भगवान् अन्यथावादी नहीं होते हैं, क्योंकि उनके झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है।
१. मंगान्तर-द्रव्यादि संयोग से होने वाले अंगों को देखकर इस प्रकार शंका हो जाती है। जैसा कि हिंसा के सम्बन्ध में चार भंग कहे गये हैं । यथा
१ द्रव्य से हिंसा, भाव से नहीं।
द्रव्य से हिंसा नहीं, भाव से हिंसा। ३ द्रव्य से भी हिंसा नहीं, भाव से भी हिंसा नहीं। ४ द्रव्य से भी हिंसा, भाव से भी हिंसा ।
ये हिंसा सम्बन्धी चार भंग हैं। इनमें से पहले मंग के लिए यह शंका होती है किउसमें हिंसा का लक्षण नहीं घटता। फिर उसे हिंसा क्यों कहा गया? द्रव्य से हिंसा हो, किन्तु भाव से हिंसा न हो, तो वह हिंसा नहीं कहलाती, जसे कि-मुनि ईर्यासमिति से देख कर चलते हैं, फिर भी उनके पैर से चींटी आदि जीव मर जाय, तो मुनि को चींटी मारने की हिंसा नहीं लगती। इस प्रकार भावहीन द्रव्य हिंसा में हिंसा का लक्षण घटित नहीं होता। हिंसा का लक्षण इस प्रकार कहा गया है
जो उ पमतो पुरिसो, तस्स य जोगं पडच जे सत्ता।
बावज्जति नियमा, तेसि सो हिसओ होई॥ अर्थात्-जो पुरुष प्रमादी है, अहंकार, विषय, कषाय, आदि प्रमादों के वशवर्ती है, उसके योग द्वारा प्राणी की जो हिंसा होती है, उसे हिंसा समझना चाहिए । तात्पर्य यह है कि प्रमाद के योग से जीव का मारना हिंसा है।
हिंसा का यह लक्षण पहले भंग में तो घटित नहीं होता और शास्त्र में तो इसको
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