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भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा
है और अचक्षुदर्शन सामान्य भेद है । अन्य प्रकार से भी दर्शन के भेद किये जा सकते हैं तथापि चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, इस प्रकार दो भेद करने का और भी कारण है। वह यह है कि इन्द्रियाँ दो प्रकार की है-१ प्राप्यकारी और २ अप्राप्यकारी । जो इन्द्रिय अपने ज्ञेय पदार्थ को प्राप्त करके ज्ञान कराती है, वह 'प्राप्यकारी' कहलाती है और जो प्राप्त किये बिना ही ज्ञान करा देती है वह 'अप्राप्यकारी' कहलाती है । चक्षु इन्द्रिय 'अप्राप्यकारी' है और शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी' हैं । यद्यपि मन भी अप्राप्यकारी है, किन्तु वह प्राप्यकारी इन्द्रियों के साथ भी रहता है । मन सब इन्द्रियों के साथ रहता है, किन्तु प्राप्यकारी इन्द्रियां चार हैं और अप्राप्यकारी सिर्फ एक है । अतएव मन प्राप्यकारी इन्द्रियों के साथ अधिक रहता है, इस कारण अप्राप्यकारी होने पर भी उसे प्राप्यकारी इन्द्रियों के साथ गिना गया है । इसलिए मन से और चार इन्द्रियों से होने वाला दर्शन 'अचक्षुदर्शन' कहलाता है और आंख से होने वाला दर्शन 'चक्षुदर्शन' कहलाता है।
. अथवा-दर्शन का दूसरा अर्थ 'सम्यक्त्व' है। उसके विषय में शंका इस प्रकार हो सकती है-शास्त्र में सम्यक्त्व के क्षायोपशमिक और औपशमिक आदि भेद बतलाये गये हैं। क्षायोपमिक सम्यक्त्व का लक्षण यह बतलाया गया है कि-जब उदीर्ण (उदय में आया हा) मिथ्यात्व का क्षय हो गया हो और अनुदीर्ण (उदय में नहीं आया हुआ) मिथ्यात्व उपशान्त हो गया हो, तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होती है । जैसा कि कहा है
मिच्छत्तं जमुदिन्यं तं सोगं, अणुदियं च उवसंत । अर्थ-उदीर्ण मिथ्यात्व का क्षय और अनुदीर्ण का उपशम होना 'क्षायोपशमिक' सम्यक्त्व है। औपशमिक सम्यक्त्व का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है
जीनम्मि उन्मम्मि अमुविजते य सेसमिच्छत्ते ।
अंतोमुत्तमेतं उबसमसम्मं लहह जीवो। अर्थ-उदय में आये हुए मिथ्यात्व का क्षय होने पर और शेष मिथ्यात्व के उदय में न आने पर अन्तर्मुहर्त मात्र के लिए जीव को उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
- इस प्रकार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक सम्यक्त्व का लक्षण एक-सा मालूम होता है । फिर इन दोनों दर्शनों को अलग अलग क्यों कहा गया है ? . इस प्रकार की शंका होने पर विचिकित्सा आदि के द्वारा कलुषितता में पड़ कर श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षा-मोहनीय कर्म का वेदन करते हैं।
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