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भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षामोहनीय की उदीरणा
. अर्थात्-उपशम सिर्फ मोहनीय कर्म का ही होता है, क्षयोपशम चार घाती-कर्मों . (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का ही होता है । उदय और क्षय परिणाम आठों ही कर्मों का होता है।
उपशम का अर्थ यह है-उदीर्ण (उदय में आए हुए) कर्म का क्षय होना और अनुदीर्ण (उदय में नहीं आये हुए) कर्म का विपाक और प्रदेशों के द्वारा अनुभव न होना। कर्म की ऐसी अवस्था को उपशम कहते है।
शंका--कर्मों की ऐमी अवस्था होना तोक्षयोपशम है, फिर इसे 'उपशम' कैसे कहा . गया?
समाधान-क्षयोपशम में भी उदीर्ण कर्म का क्षय होता है और अनुदीर्ण का उपशम होता है, किन्तु वहां प्रदेश द्वारा कर्म का अनुभव होता है, केवल विपाक से ही अनुभव नहीं होता । इस प्रकार जब कर्म का प्रदेश और विपाक दोनों द्वारा अनुभव नहीं होता है, तब वह उपशम कहलाता है और जब सिर्फ विपाक से अनुभव नहीं होता, किंतु प्रदेश से अनुभव होता है तब क्षयोपशम कहलाता है। यह उपशम और क्षयोपशम में अन्तर है। - यह उपशम, औपशमिक समकिति जीव में और उपशमश्रेणी वाले जीव में पाया जाता है।
उदीर्ण कर्म वेदा जाता है, अनुदीर्ण कर्म नहीं वेदा जाता है। यदि अनुदीर्ण कर्म भी वेदा जाय, तो फिर उदीर्ण और अनुदीर्ण में फर्क ही क्या रहे ? जो कर्म वेदने में आता है उसकी निर्जरा होती है । इसलिए आगे निर्जरा के विषय में प्रश्न किया गया है । जीव अपने आप ही निर्जरा करता है अर्थात् अपने उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम द्वारा निर्जरा करता है, किन्तु विशेष यह है कि निर्जरा उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की होती है।
उदीरणा, उपशम, वेदना और निर्जरा के सम्बन्ध में एक संग्रह गाथा कही है। वह इस प्रकार है
तइएण उदीरेंति, उवसामेति य पुणो वि बीएणं । वेइंति णिज्जरंति य, पढमचउत्यहि सब्वेवि।।
- अर्थ - पहले जो चार भांगे कहे हैं उनमें से सभी जीवों के तीसरे मांगे में उदीरणा होती है, दूसरे में उपशम होता है, पहले में वेदन होता है और चौथे में निर्जरा होती है।
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