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भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा
करना अर्थात कर्मबन्ध के कारणों को जानकर आत्मनिन्दा करना 'गहीं' है।
संवर-पापकर्म के स्वरूप को जानकर या उसके हेतु को समझकर वर्तमान में उस कर्म को न करना, उस पर रोक लगा देना 'संवर' है।
. जैसे आत्मा आप स्वयं ही बन्ध का कर्ता है, उसी प्रकार उदीरणा, गर्दा और संवर का कर्ता भी आत्मा ही है। यद्यपि संवर आदि में गुरु का उपदेश आदि भी सहकारी कारण होते हैं, तथापि उनकी प्रधानता नहीं है, प्रधानता जीव की ही है । क्योंकि जीव का वीर्य ही संवर आदि में प्रधान कारण है । गुरु आदि तो उपदेश द्वारा आत्मा के सुस्त पड़े हुए वीर्य को उत्साहित कर देते हैं। किन्तु आत्मा आप ही उदीरणा करता है, आप ही गर्दा करता है और आप ही संवर करता है। - यहाँ कर्मों की चार प्रकार की स्थिति बतलाई गई है-१ उदीर्ण-उदय में आया हुआ । २ अनुदीर्ण-उदय में नहीं आया हुआ । ३ अनुदीर्ण उदीरणा-भविक-जो अभी उदय में नहीं आया है, किन्तु उदीरणा करने के योग्य है । ४ उदयानन्तर पश्चात्कृत-उदय हो चुकने के बाद जो पश्चात्कृत हो गया है । गौतम स्वामी ने यह प्रश्न किया है कि इन कर्मों में से जीव किन कर्मों की उदीरणा करता है ?
.... शंका-पहले प्रश्न में यह कहा गया है कि आत्मा स्वयं ही उदीरणा, गर्हा और संवर करता है, किन्तु इसके बाद जो प्रश्न किया गया है कि आत्मा उदीर्ण कर्म की उदीरणा करता है, या अनुदीर्ण कर्म की अथवा अनुदीर्ण उदीरणा-भविक की, या फिर उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की उदीरणां करता है । इस प्रश्न में सिर्फ उदीरणा का ही ग्रहण क्यों किया गया है ? यहाँ गए और संवर को क्यों छोड़ दिया गया है ? अर्थात् यह क्यों नहीं पूछा कि-उदीर्ण कर्म की गर्दा करता है, या अनुदीर्ण कर्म की ? इसी प्रकार संवर के विषय में भी यह प्रश्न क्यों नहीं किया है ? .
समाधान-उदीर्ण, अनुदीर्ण, अनुदीर्ण उदीरणा-भविक और उदयानन्तर पश्चात्कृत, ये चार विशेषण उदीरणा के लिए ही हैं। इसलिए इन चार विशेषणों द्वारा उदीरणा के विषय में ही प्रश्न किया गया है । इन चारों विशेषणों में से एक भी विशेषता का सम्बन्ध गर्दा और संवर के साथ नहीं है । अतएव चारों में से किसी भी विशेषण का प्रयोग गर्दा और संवर के विषय में नहीं हो सकता।
शंका-यदि उदीरणा के साथ गर्दा और संवर का सम्बन्ध नहीं है, तो फिर पहले प्रश्न में इन तीनों को साथ क्यों रखा गया, वहाँ केवल "उदीरणा'-यह एक ही पद देना
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