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भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ कांक्षा- मोहनीय की उदीरणा
क्या उत्थान से यावत् पुरुषकार पराक्रम से करता है ? या अनुत्थान से यावत् अपुरुषकार पराक्रम से करता है ?
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१३६ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत् जानना । यावत् पुरुषकार पराक्रम से उपशम करता है ।
१३७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव अपनी आत्मा से ही वेदन करता है और गर्हा करता है ?
१३७ उत्तर - हाँ, गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त समस्त परिपाटी समझनी चाहिए । विशेषता यह है कि - उदीर्ण को वेदता है, अनुदीर्ण को नहीं वेदता है । इस प्रकार यावत् पुरुषकार पराक्रम से वेदता है, अनुत्थानादि से नहीं वेदता है। १३८ प्रश्न - - हे भगवन् ! क्या जीव अपनी आत्मा से ही निर्जरा करता है और गर्हा करता है
?
१३८ उत्तर - हे गौतम! यहाँ भी समस्त परिपाटी पूर्ववत् समझनी चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की निर्जरा करता है । इस प्रकार यावत् पुरुषकार पराक्रम से निर्जरा और गर्हा करता है। इसलिए उत्थान यावत् पुरुषकार पराक्रम हैं ।
विवेचन - यहाँ गौतम स्वामी ने कांक्षामोहनीय कर्म की उदीरणा, गर्हा और संवर के विषय में प्रश्न किया है कि - हे भगवन् ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म को आप ही है ? ही गर्दा करता है और आप ही संवर करता है ? भगवान् ने फरमाया -हाँ, गौतम ! जीव आप ही उदीरणा आदि करता है । क्योंकि बन्ध आदि में जीव की ही मुख्यता है, परन्तु दूसरे की नहीं। जैसा कि कहा है
अणुमेत्तो वि ण कस्सइ बंधो । परवत्थुपच्चया मंणिओ ॥
अर्थात् - किसी भी जीव को अणुमात्र ( जरा सा ) भी कर्मबन्ध अन्य वस्तु के कारण नहीं होता है ।
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उदीरणा -- भविष्यकाल में उदय में आने वाले कर्म को शीघ्र नष्ट करने के लिए करण विशेष द्वारा खींच कर उदयावलिका में लाना 'उदीरणा' कहलाती है ।
- अतीतकाल में जो पापकार्य किया है उनके स्वरूप को जानकर उनकी निन्दा
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