________________
भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व
१७५
वह अपने अस्तित्व में और जो वस्तु नहीं है वह अपने नास्तित्व में परिणत होती है ? . 'अंगुली का अंगुली के रूप में होना' यह अस्तित्व है । अंगुली का अस्तित्व कहने मात्र के लिए नहीं है, किन्तु अंगुली की लम्बाई, चौड़ाई आदि पर्यायें भी वैसी ही हैं । अंगुली का स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव रूप में परिणत होना, अस्तित्व का अस्तित्व रूप में परिणत होना कहलाता है। जिसका अस्तित्व है वह स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप में परिणत होता है । तात्पर्य यह है कि अंगुली आदि कोई भी वस्तु, जिसका कि अस्तित्व है वह अपने पर्याय से भिन्न नहीं है अर्थात पर्याय होने पर भी अस्तित्व, अस्तित्व रूप में ही है । अंगुली 'अस्ति' रूप है, इसलिए चाहे वह सीधी हो या टेढ़ी हो । अपने पर्याय-अस्तित्व रूप में ही परिणत होती है । सीधी होना या टेढ़ी होना अंगुली का ही धर्म है।
जिस वस्तु में अस्तित्व' है, जो सत् है, उसका रूपान्तर भले ही हो जाय अर्थात् वह एक रूप से पलटकर दूसरे रूप में भले ही पहुंच जाय, किन्तु वह रहेगी सत्य रूप ही। सत्ता कभी असत्ता नहीं बन सकती । सत्ता का विनाश होना त्रिकाल में भी संभव नहीं है । उदाहरण के लिए मिट्टी को लीजिये । वह पहले बिखरी हुई और सूखी हुई थी। उसमें पानी डाला गया तब वह गीली होगई । उसका एक पिण्ड बन गया। इताना परिवर्तन होने पर मिट्टी, मिट्टी हो रही । उसकी सत्ता ज्यों की त्यों अक्षुण्ण है। इसके बाद कुम्हार ने उस मिट्टी के पिण्ड को चाक पर चढ़ाया और उसका घड़ा बना लिया। तब भी मिट्टी तो कायम ही रही । मिट्टी के रूप में उसकी सत्ता अखण्ड है । इस प्रकार अस्तित्व, अस्तित्व रूप में ही परिणत होता है। सत्ता त्रिकाल और त्रिलोक में कभी असत्ता नहीं बनेगी। ... पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से विद्यमान रहते हैं । यद्यपि दोनों धर्म परस्पर विरोधी से प्रतीत होते हैं और साधारणतया ऐसा मालूम होता है कि जहाँ अस्तित्व है वहाँ नास्तित्व कैसे रह तकता है ? और जहाँ नास्तित्व है वहाँ अस्तित्व कैसे रह सकता है ? किन्तु अपेक्षा से इन दोनों धर्मों में विरोध नहीं है, बल्कि इनमे साहचर्य सम्बन्ध है । जहाँ अस्तित्व है वहाँ नास्तित्व और जहां नास्तित्व है वहाँ अस्तित्व अवश्य रहता है । एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता, किन्तु यहाँ अपेक्षा भेद का ध्यान अवश्य रखना चाहिए । तात्पर्य यह है कि-यदि एक ही अपेक्षा से अस्तित्व और नास्तित्व ये दोनों धर्म एक पदार्थ में स्वीकार किये जाय, तो विरोध आता है, किन्तु
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org