________________
भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व
अब गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन् ! सामान्य रूप से तो पदार्थ जैसे हैं, वैसे ही रहते हैं, किन्तु कभी अतिशय प्रबल कारण मिल जाने से अन्यथा प्रकार के भी हो जाते हैं। जैसे- अतिज्ञायी के प्रताप से अग्नि का शीतल हो जाना और विष का अमृत हो जाना। तो क्या प्रत्येक अवस्था में अस्तित्व, अस्तित्व रूप और नास्तित्व, नास्तित्व रूप ही रहता है, या प्रबल कारण मिल जाने पर अन्यथा परिणमन भी हो जाता है ।
इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि हे गौतम! ऐसा नहीं हो सकता। चाहे जितना प्रबल कारण क्यों न हो, किन्तु अस्तित्व, नास्तित्व में परिणत नहीं हो सकता और नास्तित्व, अस्तित्व में परिणत नहीं हो सकता । पदार्थों में जो धर्म है वह उनमें सदा विद्यमान रहता है ! प्रत्येक पदार्थ में अनन्तगुण हैं। इसलिए यह नहीं समझना चाहिए कि जिस पदार्थ में जो गुण प्रसिद्ध है उसके सिवाय कोई दूसरा गुण उसमें है ही नहीं । यदि ऐसा होता, तो अग्नि कदापि शीतल नहीं होती । उदाहरण के लिए दीपक प्रकाशमय है । वह बुझ जाने पर अन्धकार के रूप में परिणत हो गया । यह अस्तित्व का अस्तित्व में परिणमन हुआ, किन्तु अस्तित्व, नास्तित्व में या नास्तित्व, अस्तित्व में परिणत नहीं हुआ है । जिस प्रकार दीपक का परिणमन हुआ उसी प्रकार जीव के व्यापार द्वारा भी वस्तु में परिणमन होता है । जैसे अग्नि को शीतल कर दिया जाता है, किन्तु अस्तित्व का नास्तित्व और नास्तित्व का अस्तित्व कदापि नहीं बन सकता है। इसी प्रकार गौतम स्वामी ने भगवान् के मत के विषय में प्रश्न किया । उसका उत्तर भी उपरोक्त रूप से जान लेना चाहिए ।
१७७
.
Jain Education International
. इसके पश्चात् गौतम स्वामी ने पूछा कि - हे भगवन् ! क्या अस्तित्व, अस्तित्व में गमनीय है अर्थात् क्या यह सिद्धांत प्ररूपणा करने के लिए भी है ?:
भगवान् ने फरमाया- हाँ, गौतम ! अस्तित्व, अस्तित्व में और नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है- यह सिद्धांत गमनीय है अर्थात् प्ररूपणा करने के लिए है । जो वस्तु जैसी है, उसी प्रकार उसकी प्ररूपणा करना उचित ही है ।
गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! क्या जिस प्रकार में आपका शिष्य हूँ और भक्ति पूर्वक आपसे पूछता हूँ और आप समभावपूर्वक फ़रमाते हैं क्या अन्य कोई संसारी या पाखण्डी द्वारा पूछा जाने पर भी आप इसी प्रकार फरमाते हैं और क्या इसी प्रकार प्ररूपणा के योग्य समझते हैं ? भगवान् ने उत्तर दिया- हाँ, गौतम ! मैं इसी प्रकार कहता हूँ और प्ररूपणा के योग्य समझता हूँ ।
अथवा - 'एत्थ' का का अर्थ 'स्वात्मा' है और 'इह' का अर्थ 'परात्मा' है । क्या जैसे
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org