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'भगवती सूत्र - श. १ उ. २ पृथ्वीकायिक में आहारादि १३१
असुरकुमारों की वेदना भी नारकी जीवों की तरह होती है, क्योंकि उनमें भी नयिकों की तरह दो भेद है - संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत । संज्ञीभूत चारित्र के विराधक होते हैं । इसलिए चारित्र की इस विराधना के कारण उन्हें पश्चात्तापजन्य मानसिक वेदना बहुत होती है । इसलिए संज्ञीभूत ( सम्यग्दृष्टि ) महावेदना वाले होते हैं । असंज्ञीभूत अर्थात् मिथ्यादृष्टि असुरकुमारों को यह वेदना नहीं होती है। इस कारण से वे अल्पवेदना वाले होते हैं
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अथवा - पूर्व भव में जो संज्ञी (समनस्क) थे वे संज्ञीभूत कहलाते हैं अथवा जो पर्याप्त अवस्था प्राप्त कर चुके हैं, वे संज्ञीभूत कहलाते हैं । इन्हें शुभ वेदना की अपेक्षा महावेदना होती है और असंज्ञीभूत को अल्पवेदना होती है। शेष सब वर्णन नैरयिकों की तरह यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त कहना चाहिए ।
पृथ्वीकायिक में आहारावि
८४ - पुढविकाइयाणं आहार कम्म - वन्न - लेस्सा जहा णेरइयाणं । ८५ प्रश्न - पुढविकाइया णं भंते ! सव्वे समवेयणा ?
८५ उत्तर - हंता, समवेयणा ।
८६ प्रश्न - से केणणं भंते ! समवेयणा ?
८६ उत्तर - गोयमा ! पुढविकाइया सव्वे असन्नी असन्निभूयं अणिदाए वेयणं वेदेंति, से तेणट्टेणं.
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८७ प्रश्न - पुढविकाइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? ८७ उत्तर - हंता, समकिरिया ।
८८ प्रश्न - से केणट्टेणं ?.
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