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भगवती सूत्र-श. १ उ. २ संसार संस्थानकाल
यह जीव नरक में रहा है । इसने कभी ऐसी अवस्था भोगी है जब नरक के अपने साथियों से बिछुड़ कर अकेला ही रहा । कभी इसने ऐसी अवस्था भोगी है जब इसके साथी अनेक जीव वहाँ मौजूद थे और कभी ऐसा भी समय आया जब इसके साथ पहले वालों में से कोई भी शेष नहीं रहा था।
यहाँ नारक संसार संस्थान काल में जो मिश्रकाल सम्बन्धी विचार किया गया है वह केवल वर्तमान काल के जीवों की अपेक्षा से ही नहीं किया गया है, किन्तु जिस काल में नरक के जीव नरक में थे वे वहाँ से निकल कर दूसरी योनि में गये, फिर वे चाहे किसी भी योनि में गये हों, परन्तु उनकी अपेक्षा भी विचार किया गया है । यदि ऐसा न माना जायगा तो दोष आयगा । क्योंकि आगे अशून्यकाल की अपेक्षा मिश्रकाल अनन्तगुणा कहा गया है सो वह घटित नहीं हो सकेगा। नरक का अशून्यकाल अर्थात् विरहकाल बारह मुहर्त का है । यदि यहाँ नरक के वर्तमान के जीवों की ही अपेक्षा ली जाय तो वह असंख्यातगुणा ही ठहरेगा, अनन्तगुणा नहीं । इसलिए जो जीव नरक से निकलकर दूसरी गति में गया और वापिस नरक में उत्पन्न हुआ वह भी नरक की अपेक्षा वाले मिश्रकाल में गिना जायगा तभी मिश्रकाल की अनन्तगुणता सिद्ध हो सकेगी। कहा भी है
एवं पुण ते जीवे, पडुच्च सुत्तं न तन्मवं चेव।
जइ होज्ज तम्भवं तो, अणंतकालो ण संभवइ ॥ अर्थात्-यह सूत्र जीवों के उसी भव के आश्रित. नहीं है । यदि उसी भव के . आश्रित माना जाय तो मिश्रकाल अनन्तगुणा संभव नहीं होगा। अनन्तगुणता में बाधा आने का कारण यह है कि नरक के वर्तमान कालीन नारकी जीव अपनी आयु पूर्ण करके नरक से निकलते ही हैं और नरक की आयु असंख्यातकाल को ही है, अनन्तकाल की नहीं है। ऐसी अवस्था में बारह मुहूर्त वाले अशून्यकाल की अपेक्षा मिश्रकाल असंख्यातगुणा सिद्ध होगा, अनन्तगुणा नहीं। अतएव नरक के जीव जबतक नरक में रहें तभीतक मिश्रकाल नहीं समझना चाहिए, किन्तु नरक के जीव नरक से निकलकर दूसरी योनि में जन्म लेकर फिर नरक में आवें तबतक का काल मिश्रकाल है। .
तिर्यञ्च योनि में दो ही संस्थानकाल हैं--अशून्यकाल और मिश्रकाल । तिर्यञ्च योनि में शून्यकाल नहीं है। शून्यकाल तब होता जब उस योनि में पहले वाला एक भी जीव न रहे, किन्तु वनस्पति की अपेक्षा तिर्यञ्च योनि में अनन्त जीव हैं । वे सब के सब उसमें से निकल कर कहां समा सकते हैं, क्योंकि अन्य किसी भी योनि में अनन्त जीव समा
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