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भगवती
सूत्र - श. १ उ. २ उपपात
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के गुणों को धारण करनेवाला, साधु की सम्पूर्ण समाचारी का पालन करने वाला, किन्तु जिसमें आन्तरिक साधुता न हो, केवल द्रव्य-लिंग धारण करने वाला हो। ऐसा भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि ही यहां लेना चाहिए । १२ वें देवलोक तक उत्पन्न होने में सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार के असंयत ग्रहण किये जा सकते है । ऊपर की व्याख्या ग्रैवेयक में उत्पन्न होने वाले के लिए समझना चाहिए ।
जब देशविरत श्रावक भी बारहवें देवलोक से आगे नहीं जाता है, तो समझना चाहिए कि ऊपरी ग्रैवेयक तक जाने के लिए और भी विशेष क्रिया की आवश्यकता है । वह विशेष क्रिया श्रावक की तो है नहीं, अंतएव साधु के सम्पूर्ण बाह्य गुण ही हो सकते हैं । उस सम्पूर्ण क्रिया के प्रभाव से ही ऊपरी ग्रैवेयक में उत्पन्न होता है । यद्यपि वह साधु की सम्पूर्ण बाह्य क्रिया करता है, किन्तु परिणाम रहित होने कारण वह असंयत है ।
शंका- वह भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि श्रमण गुणों का धारक कैसे कहा जा सकता है ? समाधान- यद्यपि असंयत भव्य द्रव्य देव को महामिथ्यादर्शन रूप मोहकी प्रबलता होती है, तथापि जब वह साधुओं की चक्रवर्ती आदि अनेक राजा महाराओं द्वारा वन्दनपूजन, सत्कार, सम्मान आदि देखता है, तो मन में सोचता है कि यदि में भी दीक्षा ले लूं, तो मेरा भी इसी तरह वन्दन, पूजन, सत्कार, सम्मान आदि होगा । इस प्रकार प्रतिष्ठा मोह से उसमें व्रत पालन की भावना उत्पन्न होती है । वह लोक सन्मान की भावना से व्रतों का पालन करता है, आत्मशुद्धि के उद्देश्य से नहीं । इस कारण वह व्रतों का पालन करता हुआ भी चारित्र के परिणाम से शून्य ही है अर्थात् भावपूर्वक क्रिया करते हुए भी उसके मिथ्यात्व का उदय होने से वह असयत ही गिना गया है ।
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गौतम स्वामी का यहाँ पहला प्रश्न है कि - हे भगवन् ! असंयत भव्य- द्रव्य- देव यदि देव रूप में उत्पन्न हो तो किस देवलोक तक उत्पन्न हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि हे गौतम! जघन्य भवनवासियों में उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट नववें ग्रैवेयक तक उत्पन्न होता है ।
गौतम स्वामी ने दूसरा प्रश्न यह किया है कि हे भगवन् ! अविराधित संयम वाला अर्थात् दीक्षाकाल से लेकर जिसका चारित्र कभी भंग नहीं हुआ है, अथवा दोषों का शुद्धिकरण करने से व्रतों की शुद्धि हुई है, ऐसा साधु यदि देवलोक में उत्पन्न हो, तो किस देवलोक तक उत्पन्न होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया- हे गौतम! जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होता है। संज्वलन कषाय से अथवा प्रमत्तगुणस्थान के कारण उनमें स्वल्प मायादि दोष संभवित हो सकते हैं, तथापि चारित्र का
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