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भगवती सूत्र-श. १ उ. २ उपपात
निमित्त बताकर आजीविका करता है, ऋद्धि, रस और साता का गर्व करता है, इस प्रकार कार्य करके जो संयम को दूषित करता है, फिर भी व्यवहार में साधु की क्रिया करता है, उसे आभियोगिक कहते हैं । यदि यह देवलोक में जावे तो उत्कृष्ट अच्युत देवलोक तक . जाता है।
सलिंगी-सलिंगी होते हुए भी जो निन्हव हैं अर्थात् जो साधु के वेश में है, किन्तु दर्शन भ्रष्ट है, वह निन्हव कहलाता है। यदि ये देव गति में जावे तो उत्कृष्ट नववें ग्रेवेयक तक जा सकते हैं।
ये चौदह प्रश्नोत्तर हैं । इनसे यह नहीं समझना चाहिए कि-ये चौदह प्रकार के . जीव देवलोक में ही उत्पन्न होते हैं। किन्तु यदि देवलोक में उत्पन्न हो तो कौन कहां तक उत्पन्न हो सकता है-इसी बात पर यहां विचार किया गया है ।.ये दूसरी गतियों में भी उत्पन्न होते हैं । किन्तु उसका यहां विचार नहीं किया गया है।
शंका-यहाँ विराधित संयम वालों की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट सौधर्म देवलोक बतलाई गई है, किन्तु सुकुमालिका के भव में द्रौपदी संयम की विराधिका होते हुए भी ईशान देवलोक में गई थी। फिर उपर्युक्त कथन कैसे संगत होगा ?
___समाधान-सुकुमालिका ने मूलगुण की विराधना नहीं की थी, किन्तु उत्तरगुण की विराधना की थी अर्थात् उसने बकुशत्व का कार्य किया था। बारबार हाथ मुंह धोते रहने से साधु का चारित्र बकुश (चितकबरा) हो जाता है । सुकुमालिका का यही हुआ था। यह उत्तर गुण की विराधना हुई, मूलगुण की नहीं । यहाँ जिन विराधक संयमियों की.उत्पत्ति उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में बताई गई है, वे मूलगुण के विराधक हैं, ऐसा समझना चाहिए। क्यों कि उत्तर गुण प्रतिसेवी बकुशादि की उत्पत्ति तो अच्युत कल्प तक ही हो सकती है। __ शंका-यहाँ असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट वाणव्यन्तर बतलाई गई है । तो क्या भवनवासी देवों से वाणव्यंतर बड़े हैं ? इसके सिवाय भवनवासी देवों के इन्द्र चमर और बलि की ऋद्धि बड़ी कही गई हैं। आयुष्य भी इनका सागरोपम से अधिक है, जबकि वाणव्यंतरों का आयुष्य पल्योपम प्रमाण ही है। फिर वाणव्यन्तर भवनवासियों से बड़े कैसे माने जा सकते हैं ?
- समाधान-कई वाणव्यन्तर कई भवनवासियों से भी उत्कृष्ट ऋद्धि वाले होते हैं और कई भवनवासी वाणव्यन्तरों की अपेक्षा कम ऋद्धि वाले हैं । अतः यहां जो कथन किया गया है, उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है, कई वाणव्यन्तर कई भवनवासियों से अधिक
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