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भगवती सूत्र - श. १ उ. २ मनुष्य के आहारादि
'हैं - आरम्भिकी और मायाप्रत्यया । संयतासंयत को तीन क्रियाएँ लगती हैंआरम्भिकी, पारिग्रहिको और मायाप्रत्यथा । असंयत मनुष्य को चार क्रियाएँ लगती हैं - आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानप्रत्यया । मिथ्यादृष्टि मनुष्य को पाँच क्रियाएँ लगती हैं—आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया । सम्यग्मिथ्यादृष्टि ( मिश्र दृष्टि ) मनुष्य को भी ये पाँचों क्रियाएँ लगती हैं ।
विवेचन- गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! क्या सब मनुष्य समान आहार करने वाले हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि इनका सारा वर्णन नारकियों के समान ही समझ लेना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है- महाशरीरवाले मनुष्य बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, परन्तु कदाचित् आहार करते हैं। महाशरीरी नारकी बारबार आहार करते हैं, किन्तु महाशरीरी मनुष्य कभी कभी आहार करते हैं। यहां महाशरीरी मनुष्यों से. देवकुरु आदि के मनुष्य लेना चाहिए। उनका शरीर तीन गाऊ का होता है और आहार अष्टम-भक्त होता है अर्थात् तीन दिन में एक बार आहार करते हैं। इस अपेक्षा से 'कदाचित् आहार करनेवाले' ऐसा कहा गया है । यद्यपि वे परिमाण की अपेक्षा अल्प परिमाण में आहार करते हैं, तथापि बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं. ऐसा जो कहा गया है। उसका आशय यह है कि वे सारभूत आहार करते हैं, सारभूत आहार में जितने पुद्गल होते हैं, निःसार में उतने नहीं होते। इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि वे बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं ।
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अल्पशरीरी मनुष्य थोड़े पुद्गलों का आहार करते हैं और बारबार आहार करते हैं, जैसे कि बालक बारबार आहार करता है तथा सम्मूच्छिम मनुष्य अल्पशरीरी होते हैं और वे बारबार आहार करते हैं ।
यहाँ पूर्वोत्पन्न मनुष्यों में जो शुभ वर्णादि का कथन किया गया है वह युवावस्था की अपेक्षा समझना चाहिए अथवा यह कथन सम्मूच्छिम मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए ।
इसके बाद क्रिया का प्रश्न किया गया है । भगवान् ने फरमाया कि - मनुष्य तीन प्रकार के है - सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि सम्यग् मिथ्यादृष्टि ।
जो संयम का पालन करता है, चारित्ररूपी यतना का विवेक रखता है वह संयत
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